Friday 12 August 2011

समय के विद्रूप से टकराती कहानियां


सोद्देश्यता की कसौटी पर खरा उतरने वाला साहित्य ही लंबे समय तक अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में समर्थ होता है। अनुभूति की प्रमाणिकता व अभिव्यक्ति की सात्विकता किसी भी साहित्यकार को ऊंचा दर्जा दिलाती है। अरविन्द कुमार सिंह की कहानियां इस संदर्भ में सराही जानी चाहिए। उनके कहानी संग्रह ‘उसका सच’ में संकलित नौ कहानियां समय के विद्रूप से टकराने का न केवल माद्दा रखती हैं अपितु क्रिया-प्रतिक्रिया भी उत्पन्न करती हैं। सामंतवाद, पूंजीवाद व साम्राज्यवाद को नंगा करके उसके घिनौनेपन तथा दलित, शोषित व पीडित वर्ग के मर्म का यथार्थ अंकन इन कहानियों में हुआ है।

संग्रह की प्रथम कहानी ‘सती’ सवर्ण बच्चों द्वारा एक दलित बच्चे के साथ किए जा रहे बर्बर व्यवहार को दर्शाती है। दलित बच्चे नक्कू के पिता की मृत्यु के साथ ही मां को समाज द्वारा बलात सती कर देना मार्मिक घटना है। इक्कीसवीं सदी के इस प्रगतिशील युग में ऐसी घिनौनी व बर्बर घटनाएं न केवल रोंगटे खड़े करती हैं अपितु शर्मिंदा व बेचैन भी करती हैं। यहां निम्न व उच्च दोनों वर्गों की अपनी-अपनी विवशताएं खुलती हैं। निम्न वर्ग भूख व गरीबी के चलते मजबूर है तो उच्च वर्ग अंधविष्वास के चलते अपनी सुरक्षा के प्रति बेचैन दिखाई देता है।

‘विष पाठ’ में कहानीकार का इतिहासकार खुलकर सामने आया है। अरविन्द कुमार भारतीय इतिहास की गहरी परख रखते हैं। कहानी कांग्रेस द्वारा 1952 में लाए गए जमींदारी उन्मूलन कानून से लेकर 1992 में हुए बाबरी विध्वंश तक के भारतीय राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य को बड़ी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करती है। जमींदारी उन्मूलन कानून के बाद अवध के नबावों व जमींदारों की प्रतिक्रियाआंे के साथ-साथ कहानी यह भी रेखांकित करती है कि किस प्रकार नबावों व जमींदारों की कामुकता व ऐयाशी न केवल उनके अपने अपितु देश के भविष्य व अस्तित्व को भी लील गई। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘उसका सच’ की बांझ दलित महिला सुनयना धोपाप घाट पर स्नान व पापर देवी के दर्शन के लिए जाती तो है संतान की लालसा में, परंतु चुरा लाती है अपने पति हरफूल के घायल पांवों के लिए जूते। दलित गरीब महिला की विवषता का चित्रण यहां बड़े ही स्वाभाविक तरीके से उजागर हुआ है।
‘बीमारी’ पूंजीवाद की जड़ों को खंगालती है। कारपोरेट जगत में ऊंची पैठ बना चुके सक्सेना दंपत्ति के पास अपने बेटे के लिए समय नहीं है। अतिमहत्वाकांक्षी यह दंपत्ति बिजनेस में इस कद्र व्यस्त है कि वे कभी-कभी उस पल को भी कोसने लगते हैं, जब विक्की पैदा हुआ था। एक मां द्वारा अपने बीमार बेटे के लिए यह कहना कि ‘अगर यह जिंदा रहा तो हम लाइफ में कुछ भी नहीं कर सकेंगे।’ विड़म्बनापूर्ण है। पूंजीवादी शक्तियां किस प्रकार श्रम कानूनों को खत्म करने और यूनियनों को प्रतिबंधित करवाने को उतावली हैं, इसका पर्दाफास इस कहानी में हुआ है। विश्व पूंजीवाद व आर्थिक साम्राज्यवाद कैसे मालिक-मजदूर संघर्ष को जन्म दे रहा है और आदमी को स्वार्थी व जाहिल बना रहा है। इसका स्पष्ट चित्रांकन इस कहानी में हुआ है।

अरविन्द कुमार सिंह पूरी व्यवस्था की पोल खोलते हैं और वह भी बेबाकी से। पूंजीवाद की व्यवस्था से सांठ-गांठ को भी वे उघाड़ते हैं। ‘कांटा’ कहानी में लेखक आधुनिक दलित विमर्श की वैचारिक सीमाओं की ओर संकेत करने में सफल रहा है। ‘‘बप्पा हमारी लड़ाई जाति से नहीं, जुलुम-अत्याचार से है। चाहे वह चौधरी का जुलुम हो, चाहे ठाकुर मुखिया का।’’ शहर से पढ़कर गांव लौटे ठाकुर पुत्र के विचार नयी पीढ़ी की सोच को प्रतिबिंबित करते हैं। वर्ग बनाम वर्ण और परंपरा तथा आधुनिकता के द्वंद्व को उकेरती है यह कहानी। कहानी जाति व धर्म के नाम पर हो रही राजनीति के प्रति पाठकों को सचेत करते हुए धर्म, जाति व संप्रदाय के आधार पर झगड़ने की बजाय उस व्यवस्था व मानसिकता से संघर्ष को प्रेरित करती है जो शोषण व असमानता को जन्म देती है।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘लंबी टेर का दर्द’ उत्तर आधुनिक समाज के खोखलेपन की ओर निर्दिष्ट करती है। मानव जाति के लिए इससे बड़ी विड़म्बना क्या होगी, यदि मानव को मानव होने में ही हीनता महसूस होने लगे। कहानी के केंद्रीय पात्र एक गरीब ठाकुर दुखराज सिंह उर्फ दुक्खू को अगले जन्म में कुछ भी बनना स्वीकार है परंतु मनुष्य नहीं। कहानी का यह बेहद बेबस पात्र क्रांतिकारी रूप में सामने आता है। अपने सगे भाई से धोखा खाए व निर्दयी तमाशबीन समाज से आहत दुक्खू चुनाव लड़ता है। वह अदालत में कहता है-‘‘गरीब-दुखिया इस मुलुक के लिए चींटी और मच्छर हैं। हर कोई उसे पीस डालना-मार डालना चाहता है। उसकी रक्षा केे लिए कहीं कोई कानून नहीं है, कोर्ट-कचहरी, पुलिस-वकील सब झूठ है-फरेब है...।’’ दुक्खू द्वारा दिए गए भाषण के अंश आम आदमी के उस दर्द व आक्रोश की अभिव्यक्ति है जो शोषित व बेकसूर लोगों की नसों में नासूर की तरह दौड़ रहा है। ‘‘मुलुक के नेता चोर और गुंड़े हैं। गरीबों की खलरी उधेड़ रहे हैं। हमारा खून पी रहे हैं।’’ ‘‘हम प्रधान बने तो हर मंत्री को काला पानी भेज देंगे। एमपी-एमेले के मुंह में कुत्तों से पेशाब करवा देंगे। जज, डिप्टी कलेक्टर और दरोगा-ससुर सब बेकसूर को सताते हैं, इनके मुंह पर कालिख पोत कर जिले भर में गधे पर घुमाया जाएगा।’’

अरविन्द कुमार सिंह सीधी सरल भाषा में ही अपना लक्ष्य साध लेने में समर्थ हैं। उनकी भाषा में एक तरफ जहां प्रतिकार, आक्रोश व गुस्सा है तो दूसरी ओर एक तेवर भी है जो सामने वाले को धराशायी करने की ताकत रखता है। वे अपनी बात बेबाकी से रखते हैं उन्हें न तो किसी प्रकार का भय है और न ही संकोच। व्यवस्था की नपुंसकता व भ्रष्टता को उजागर करने का साहस भी उनमें है। सामाजिक यथार्थ यहां परत-दर-परत खुलता है वह भी बड़ी ही ईमानदारी व साफगोई के साथ। संग्रह की सभी कहानियां ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हैं और संवेदनात्मक स्तर पर इनमें कहानीकार की जनपक्षधरता की अभिव्यक्ति हुई है। लेखक शोषित वर्ग के जीवन की अंतः बाह्य समस्याओं से परिचित है तभी उनके कथानक प्रामाणिक बन पड़े हैं।

पुस्तक-उसका सच, (कहानी-संग्रह) लेखक-अरविन्द कुमार सिंह, प्रकाशक-प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, मूल्य-150 रुपये

कृष्ण कुमार अग्रवाल, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

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