Wednesday 16 November 2011

हम सबका घर तथा अन्य कहानियाँ (बाल साहित्य)


आज सिरहाने

रचनाकार
नरेन्द्र कोहली
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प्रकाशक
 हिंद पाकेट बुक्स
दिल्ली
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पृष्ठ - १३६
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मूल्य : ६.९५
(कूरियर से)
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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में
 
बच्चे हमारी अमूल्य संपत्ति है, यह लुट जाएगी यदि इसे संस्कार नहीं दिए जाएँगे। बाल्यावस्था जीवन की नींव होती है। इस नाजुक समय में यदि सही मार्गदर्शन व अच्छे संस्कार बच्चों को दिए जाएँ तो वे जीवन में सफलता प्राप्त कर आदर्श नागरिकबन सकेंगे अन्यथा गलत कार्यों में प्रवृत्त हो देश की प्रगति और विकास में अवरोधक ही बनेंगे।

वरिष्ठ कथाकार नरेन्द्र कोहली समकालीन कथा साहित्य में एक लोकप्रिय कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कोहली जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में महत्वपूर्ण लेखन किया है। उनके राम कथा, कृष्ण कथा, महाभारत कथा तथा विवेकानंद के जीवन पर आधारित उपन्यासों की शृंखलाओं ने हिन्दी साहित्य को समृद्धि प्रदान की। उनकी रचनाऔं में निहित नैतिक आदर्शों तथा जीवन-मूल्यों ने वर्तमान संकटग्रस्त सदी के मार्गनिर्देशन में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। नरेन्द्र कोहली बाल-साहित्य में भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। बच्चों तथा किशोरों को समझदार तथा विवेकशील ब
नाने की दिशा में उनकी रचनाओं की सार्थक भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।

कोहली जी के कहानी संग्रह ‘हम सबका घर तथा अन्य कहानियाँ’ में संकलित कहानियाँ इस नाते प्रशंसनीय एवं सराहनीय है कि वे बाल तथा किशोरों के चरित्र-निर्माण तथा सही आदतों के विकास में प्रभावी भूमिका निभाती हैं। संग्रह में संकलित सभी कहानियाँ बाल तथा किशोर पात्रों को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। इन कहानियों में लेखक उपदेश नहीं देता अपितु व्यावहारिक स्तर पर ऐसे कथानक प्रस्तुत करता है जो बच्चों को स्वयं निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करते हैं कि उनके लिए क्या सही है, क्या गल
त।

‘छोटी सुविधा बड़ी असुविधा’ कहानी में पिता द्वारा पुत्र को दी जा रही नसीहतें यह रेखांकित करती हैं कि हम नियमों तथा कानूनों का पालन करके पुलिस व प्रशासन पर अहसान नहीं कर रहे हैं बल्कि यह हमारी अपनी सुरक्षा व हित की बात है। ‘चुनाव का अधिकार’ बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। अक्सर मां-बाप द्वारा बच्चों पर अपनी पसंद-नापसंद व इच्छाएँ थोपी जाती हैं। परंतु इस कहानी में कथाकार यह संदेश संप्रेषित करने में सफल रहा है कि बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए उन्हें निर्णय अर्थात चुनाव का अधिकार दिया जाना बहुत आवश्यक है।
‘ज्योतिषी’ शीर्षक कहानी में शर्मा जी द्वारा निराश मुस्लिम युवक मुहम्मद इस्माइल के प्रति स्नेहपूर्ण तथा सहयोगपूर्ण व्यवहार को दर्शाया गया है। शर्मा जी अपने विनोदी स्वभाव से न केवल मोहम्मद इस्माइल की समस्या को हल करते हैं अपितु अपने सहकर्मी खुशीराम को भी खुशी प्रदान करते हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हम सबका घर’ बच्चों के सामान्य ज्ञान-विज्ञान को बढ़ाती है। पर्यावरण संरक्षण व प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग का सेदश संप्रेषित करती है यहकहानी।

बच्चों को पर्यावरण प्रदूषण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले संकट के प्रति सचेत करने के साथ-साथ प्रकृति की रक्षा के प्रति संकल्पबद्ध होने की प्रेरणा यह कहानी देती है। इस संदर्भ में स्वयं कोहली जी लिखते हैं-‘पानी के गंदे हो जाने की घटना हमारे अपने घर में घटी। उसें मेरे बच्चों ने इतने निकट से देखा कि नदियों के प्रदूषित होने की प्रक्रिया को
समझने में उन्हें कठिनाई नहीं है। मैं यह मानता हूं कि व्यापक प्रश्न भी सामान्य जीवन की छोटी घटनाओं से कुछ बहुत पृथक नहीं होते। बच्चों और व्यस्कों की सौंदर्य-चेतना में भी बहुत भेद नहीं होता।’ इस प्रकार खेल-खेल में बच्चों को जटिल विषयों के प्रति जागरुक और सावधान करने में नरेन्द्र कोहली जी सफल रहे हैं।

इन कहानियों में उपदेश नहीं है, परंतु उद्देश्य अवश्य है। कोहली जी बाल-मनोविज्ञान के पारखी हैं। इन कहानियों में अनेक प्रसंग ऐसे आते हैं जहां बाल सुलभ जिज्ञासाएँ पैदा होती हैं और उनके स्वाभाविक उत्तर कथाकार द्वारा प्रायोगिक आधार पर दिए जाते हैं। विज्ञान-तकनीक तथा सूचना-संचार की इस सदी में तर्क के आधार पर ही चीजों को स्वीकारा और नकारा जा रहा है। ऐसे में कथाकार उपदेशक न बनकर वैज्ञानिक बनकर बच्चों को प्रैक्टिकल होकर प्रेरित करता है। संग्रह की सभी कहानियों में लेखक का यही प्रयास रहा है जो स्तुत्य भी है और इन कहानियों को विशिष्टता भी देता है।

कथ्य, शिल्प और भाषा के स्तर पर भी लेखक ने बड़ी समझदारी से काम लिया है। ये कहानियाँ क्योंकि बाल तथा किशोर वर्ग को संबोधित करके लिखी गई हैं तो स्वाभाविक रूप से इन कहानियों में लेखक द्वारा प्रयुक्त भाषा सरल तथा सहज है, जो किशोरों के लिए सर्वथा उपयुक्त है। संवाद शैली बच्चों तथा किशोरों के लिए सरस तथा मनोरंजक है। इन कहानियों में लेखक की अपनी देखी-भाली घटनाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। ये कहानियाँ हमारे जीवन तथा परिवेश से जुड़ाव रखती हैं और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाली छोटी-छोटी सीखें हमें देती हैं।
 
- कृष्ण कुमार अग्रवाल१४ नवंबर २०११

Friday 11 November 2011

आदर्शों की स्थापना के प्रति प्रतिबद्धता




साहित्य समाज का दर्पण है। युगीन यथार्थ का लेखा-जोखा साहित्य में प्रतिबिंबित होता है। साहित्य में चित्रित यथार्थ पाठकों में युगीन विसंगतियों व विद्रूपताओं के प्रति घृणा का भाव जगाकर इनके निदान व समाधान को उकसाता है। परंतु वर्तमान में साहित्य में यथार्थवाद के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह नग्नता व भौंडेपन की सीमाओं का हनन करता है और साहित्य के असल प्रयोजन की अनदेखी करता है। यह सही है कि साहित्य के माध्यम से विसंगतियां और विद्रूपताएं उजागर होनी चाहिए परंतु साहित्य पर युग को दिशा देने का गुरुत्तर उत्तरदायित्व भी होता है। इस प्रकार साहित्य न केवल समाज का दर्पण होता है बल्कि समाज का दीपक भी होता है।


पुस्तक- ‘कोई है’ (कहानी संग्रह), लेखक – रूपसिंह राठौड़, प्रकाशक-ग्रंथ विकास, जयपुर, 2009 मूल्य-150 रुपये, पृष्ठ संख्या-127
रूपसिंह राठौड़ के प्रथम कहानी संग्रह ‘कोई है’ में संकलित कहानियां इसी मत को दृष्टिगत कर लिखी गई कहानियां हैं। लेखक युगीन समस्याओं व विसंगतियों के प्रति चिंतित है और अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रयासरत है। वह आधुनिक समाज के यथार्थ को पाठकों के सामने नंगा करता है परंतु यह पाठकों में निराशा, अवसाद व बेचैनी पैदा नहीं करता अपितु उन्हें जागरूक होकर इनके निराकरण की दिशा में अग्रसर करता है। वस्तुतः लेखक का पूरा बल नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने पर है।

इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों के पात्र आदर्शों की स्थापना के प्रति प्रतिबद्ध हैं। वे यथार्थ से आहत तो होते हैं परंतु पराजित नहीं। वे प्रतिकूल परिस्थितयों में भी अपनी जिजीविषा को कायम रखते हैं और समय के विद्रूप व विसंगत से टकराकर सुपथ पर अग्रसर होने को प्रेरित करते हैं। हरकली एक साहसी महिला है जो अपने शराबी पति की मृत्योपरांत पुनर्विवाह से इंकार कर देती है और अपना संपूर्ण जीवन व संपत्ति जरुरतमंद लोगों के लिए समर्पित कर देती है। ‘दादू दे उऋण भया’ का शैलेश अपने मित्र का कर्ज चुकाना चाहता है परंतु लाख कोशिशों के बावजूद भी जब उसे अपने मित्र का पता-ठिकाना नहीं मिलता तो वह कर्जराशि को अपने मित्र के नाम से एक धर्मार्थ खुल रहे औषधालय के निर्माणार्थ दान कर देता है। ‘इकबाल अमर है’ का इकबाल एक ईमानदार व कर्तव्य कर्मचारी है। वह कार्यालय में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निस्वार्थ भाव से करता है वह रिश्वतखोरी के खिलाफ है। ‘कीच का कमल’ के अक्षय राजावत एक बडे अधिकारी हैं। वे एक लावारिस बच्चे को अपनाते हैं। उसका पालन पोषण कर उसे कलेक्टर बनाते हैं। इन कहानियों में अनेक ऐसे पात्रों से परिचय होता है जो युगीन सरोकारों से गहरा जुडाव रखते हैं और अपने तईं भरपूर प्रयत्न करते हैं कि सामाजिक परिवेश में सुधार हों।

संग्रह में संकलित कहानियों में आधुनिक युग की मूल्यविहीन संस्कृति व स्पंदनहीन हो चुके संबंधों को भी परत-दर-परत उघाड़ा गया है। राठौड जी न केवल वर्तमान सामाजिक परिवेश में घुस आये प्रदूषण को बयान करते हैं अपितु राजनीतिक स्वार्थांधता, संकुचित सांप्रदायिकता व सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को भी चित्रित करते हैं। ‘पुश्तैनी नौकर’ शीर्षक कहानी में युग की विड़म्बना का पर्दाफास हुआ है। धनजी एक विद्यालय में प्रधानाध्यापक है। कार्यालय में आये अपने पिता जी का परिचय वह अपने अधीनस्थों से ‘पुश्तैनी घरेलू नौकर’ की संज्ञा देकर कराता है। नयी पीढी की हीनभावना इस कहानी में व्यक्त हुई है। ‘नत्थू तेरे खरे’ चिकित्सा के नाम पर फर्जी नीम हकीमों द्वारा भोले-भाले रोगियों के शोषण की कहानी है। ‘चुटिया न होती’ अपने संक्षिप्त कथ्य में सांप्रदायिकता पर गहरी चोट करती है। ‘आदर्श की अर्थी’ में पारिवारिक विघटन को दर्शाया गया है। ‘कारगिल का गजराज’ शहीद सैनिकों के परिवारों के साथ सरकार के बर्ताव को अभिव्यक्त करती है। मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के परिवारों के साथ अन्याय क्षोभ पैदा करता है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कोई है’ युगीन अपसंस्कृति का चित्र पेश करती है। ससुर की हरकतों से परेशान नवविवाहिता जिसका पति परदेश में कार्यरत है, आत्महत्या कर लेती है। और जब चन्द्रेश को अपनी पत्नी की मृत्यु का सच मालूम होता है तो वह अर्धविक्षिप्त अवस्था में जीवन बसर करने पर मजबूर हो जाता है।

कहानियां आकारगत संक्षिप्त होते हुए अपने कथ्यगत सरोकारों में विराट और उदात्त हैं। इन कहानियों में राजस्थानी भाषा व संस्कृति की महक है। राजस्थानी कहावतों व लोकगीतों का कहानियों में प्रयोग हुआ है। यह भाषा पाठकों की अपनी भाषा है। कहीं कोई बनावट या बुनावट प्रतीत नहीं होती। राठौड़ जी की भाषा सुगम्य होने के साथ-साथ साहित्यिक मापदंडों पर भी खरी उतरती है। संग्रह में संकलित कुछ कहानियां अपरिपक्व तथा कमजोर हैं। कथ्य व शिल्प दोनों ही दृष्टियों से ये कहानियां अस्वाभाविक लगती हैं। कुछ कहानियों में लेखक की उपदेशात्मकता व वैचारिकता कथानक के प्रवाह में बाधा पैदा करती है। ‘बंदरिया वाली प्रेयसी’ तथा ‘बाबा गंगा, कौन ले पंगा’ जैसी कहानियां इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं।

आदर्शों की प्रतिस्थापना, जीवन-मूल्यों का संरक्षण-संवर्द्धन, सभ्यता और संस्कृति की रक्षा, भाईचारे की भावना, मानवीय रिश्तों पर बल तथा नयी पीढी को सकारात्मक दिशा में बढ़ने का संदेश इन कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है। वैसे भी एक आदर्श शिक्षक से इन्हीं विचारों की अपेक्षा की जाती है। राठौड जी एक सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। उनकी कहानियों में आदर्शों के प्रति उनका आग्रह स्वाभाविक भी है और अनुकरणीय भी। यह उनका प्रथम कहानी संग्रह है जो अपनी कुछ कमजोरियों के बावजूद ये कहानियां कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं।

एक संवेदनशील रचनाकार की चिंताएं


सुशांत सुप्रिय हमारे समय के उन गिने-चुने लेखकों में से एक हैं जो महानगरीय वातावरण में रहने के बावजूद भी अपनी संवेदना तथा भावना को बचाए रखने में सफल रहें हैं। उनकी कहानियों में इस तथ्य को भली-भांति परखा जा सकता है। पेशे से सुशांत जिस स्थान पर बैठे हैं वहां से एक समृद्ध भारत और निर्धन भारत के बीच के फर्क को साफ-साफ देखा जा सकता है। लोकसभा जैसी संस्था में कार्यरत सुशांत का कहानीकार जब जन-गण-मन की वकालत करता और भ्रष्ट सरकारी तंत्र को नंगा करके उसके घिनौने चरित्र को पाठकों के समक्ष लाता है तो वह प्रामाणिक होने के साथ-साथ उम्दा रचनाओं को जन्म देता है।
सुशांत सुप्रिय के सद्य प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘हत्यारे’ में 35 कहानियां संकलित हैं। ये कहानियां समकालीन सदी की ज्वलंत समस्याओं से न केवल मुठभेड करती हैं अपितु उनको कुचल कर आदर्श भी स्थापित करती हैं। लगभग सभी कहानियों में लेखक परंपरागत मूल्यों और आदर्शों की पुनर्स्थापना के लिए प्रयासरत है। इसे एक युवा लेखक का विवेक कहना चाहिए कि वह एक ऐसे समय में ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की बात करता है जब यथार्थवाद और अतियथार्थवाद का शोर हमारे यहां प्रमुखता में है। लीक से हटकर लिखी इन कहानियों में किसी प्रकार का छद्म देखने को नहीं मिलता बल्कि एक संवेदनशील रचनाकार की चिंताएं इनमें व्यक्त हुई हैं। स्वयं लेखक अपनी बात में इसे स्पष्ट करता है। सुशांत के लिए लेखन एक तडप है, धुन है, जुनून है। कुछ सामाजिक यथार्थ है। कुछ कल्पना की उडान है। कुछ व्यक्तिगत अनुभव हैं। कुछ आत्मीय सामाजिक सरोकार हैं जिन्हें लेखक द्वारा इन कहानियों में संजोया गया है।
‘हत्यारे’ कहानी समाज में दहशत और भय के माहौल को व्यक्त करती है। ‘बँटवारा’ में सांप्रदायिक उन्माद की भेंट चढी एक किन्नर की लाश के माध्यम से दंगाईयों के चरित्र का नंगापन उजागर हुआ है। मानवीय संवेदना के स्याह-सफेद पहलुओं का रेखांकन ‘अपना शहर’, ‘राम नाम सत्य है’, ‘प्यार’, ‘एहसानमंद’ आदि कहानियों में बडी खूबसूरती से हुआ है। शिक्षा जगत की विकृतियां ‘मुलाकात’ कहानी में अभिव्यक्त हुई हैं। ‘मिसफिट’ में व्यवस्था के प्रति विद्रोह प्रकट हुआ है। ‘गलती’ तथा ‘प्रवासी कौवे की कथा’ कहानी नस्लभेद की समस्या को सामने लाती है।
सुशांत की इन कहानियों में जो यूटोपिया उभर कर हमारे समक्ष उपस्थित हुआ है, वह कपोल कल्पित न होकर समय और समाज के लिए आदर्शों और मूल्यों की प्रतिस्थापना का ईमानदार प्रयास है। लेखक पीढीगत वैचारिक अंतराल को अभिव्यक्त करते हुए इस युग की मूल्यहीनता को परंपरागत जीवनादर्शों के सामने घुटने टेकते हुए देखना चाहता है।
सुशांत की कहानियों का आकार संक्षिप्त है। कुछ आलोचकों का मत है कि उन्हें लंबी कहानियां भी लिखनी चाहिए। परंतु मेरा मत है कि छोटे कथ्य में महत्वपूर्ण संदेश बयान करने का जो कौशल सुशांत के पास है, वह उनकी विशिष्टता है। ‘बँटवारा’, ‘गलती’, ‘प्रवासी कौवे की कथा’ आदि कहानियां अपने छोटे कथ्य में बडी बात कहने वाली कहानियां हैं। इन कहानियों में व्यंग्य और कटाक्ष का अंदाज तीखा, पैना और प्रभावी है। भाषायी संस्कार और शैल्पिक तहजीब के कथाकार सुशांत एक संभावनाशील रचनाकार के रूप में बधाई के पात्र हैं, जिनसे भविष्य में कुछ और अच्छी कहानियों की उम्मीद की जा सकती है।
लेखक- सुशांत सुप्रिय
पुस्तक- हत्यारे
प्रकाशक- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 337, चौडा रास्ता, जयपुर-302 003
मूल्य- 225 रुपये
पृष्ठ संख्या- 132
  कृष्ण कुमार अग्रवाल

Tuesday 4 October 2011

विविधवर्णी कथाकारःमुरलीधर वैष्णव


श्री मुरलीधर वैष्णव जोधपुर में जिला उपभोक्ता न्यायालय में न्यायाधीश हैं। वैष्णव जी ने अपने लम्बे न्यायाधीशीय अनुभव में सरकार, प्रशासन, पुलिस व आम जनता की मानसिकता व विचार-व्यवहार को करीब से जांचा-परखा है। उन्होंने अपनी कहानियों में निर्भीकता व विवेकपूर्ण तरीके से इन सभी वर्गों की अपनी-अपनी कमजोरियों को उघाड़ा है। वैष्णव जी एक कत्र्तव्यनिष्ठ, ईमानदार व विवेकवान न्यायाधीश हैं। उनके भावुक हृदय ने अपनी संवेदनाओं को साहित्य की अनेक विधाओं में अभिव्यक्त किया है। कहानी के साथ-साथ लघुकथा व बालसाहित्य में भी उनका स्तरीय लेखन है। उनका एक लघुकथा व दो बालकथा संग्रह प्रकाशनाधीन हैं।

लेखक-मुरलीधर वैष्णव, प्रकाशक-श्री करणी प्रकाशन, सोजत नगर (राज.)
 लगातार तबादलों के चलते वैष्णव जी को विभिन्न जीवन शैलीयों व संस्कृतियों को करीब से देखने का अवसर मिला। ‘मांद से ड्राइंग रुम तक’ कहानी में जहां नगरीय संस्कृति की संवेदनहीनता चित्रित हुई है वहीं ‘तीसरा वज्रपात’ में आदिवासी जीवन की विड़म्बनाओं को दर्शाया गया है। वैष्णव जी की कहानियों का दृष्टिकोण आदर्शोन्मुख यथार्थवाद है। यहां न तो कोरा आदर्शवाद ही है और न ही नग्न यथार्थवाद। उनका प्रयत्न मानव जाति को संभावित खतरों के प्रति सजग करने का है न कि निराश व हतोत्साहित करना। इन कहानियों में वर्णित विषय लेखक के देखे-भोगे हैं। स्वयं लेखक के शब्दों में ‘ये सच्चे अनुभूत किस्से अच्छी खासी भीतरी हलचल के बाद ही पीड़ा के स्वर के रूप में उभरे हैं।’ 

संग्रह की प्रथम कहानी ‘मांद से ड्राइंग रुम तक’ जंगलों की अंधाधुंध कटाई के फलस्वरूप वन्य जीवन के असंतुलन को दर्शाती है। पशु की इंसानियत और इंसान का पशुत्व इस कहानी में व्यक्त हुआ है। कहानी वन्य जीवों के अधिकारों को उठाती है। हम मानवाधिकारों की बात करते हैं, स्त्री-दलित-आदिवासियों के अधिकारों की बात करते हैं परंतु सभ्यता के विकास क्रम में मानव के साथी रहे पशु-पक्षियों पर मानव की बर्बरता पर खामोश क्यों हैं? कहानी एक प्रश्न छोड़ जाती है। ‘तीसरा वज्रपात’ कहानी आदिवासी जन-जीवन व लोक-संस्कृति की झलक लिए है। आदिवासी स्त्री चरित्र थंवरी के माध्यम से लेखक आदिवासी स्त्री जीवन की विड़म्बनाओं को रेखांकित करने में सफल रहा है।

असामाजिक तत्व किस प्रकार सांप्रदायिक उन्माद पैदा करते हैं और धर्मांध समाज कैसे इन असामाजिक तत्वों के नापाक मंसूबों को समझ पाने में असमर्थ है। ‘आंखें कहां है’ शीर्षक कहानी में लेखक इसी ओर संकेत करता है कि  विवेक व सहनशीलता से सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखा जा सकता है। ‘हर पल जीना है’ आदर्शवादी अध्यापक आलोक की कहानी है। जो गांव में शिक्षा का आलोक फैलाता है, हरिजनों व मुस्लिमों के विवाद को सुलझाकर भाईचारे से रहने की प्रोरणा देता है। ‘अन्तिम झूठ’ शीर्षक कहानी में शीला एक साहसी, बुद्धिमान व चरित्रवान महिला है जो अपनी सूझ-बूझ से न केवल अपने पति के हत्यारों को सजा दिलवाती है अपितु अपने बेटे को एक बड़ा आदमी बनाती है। पुलिस व अपराधियों की सांठ-गांठ यहां खुलती है। शीला का अंतिम बयान समूची प्रणाली पर गहरी चोट करता है।

‘वापसी’ कहानी आदिवासी क्षेत्रों में चल रही धर्मांतरण की गतिविधियों पर प्रकाश डालती है। आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरीयों द्वारा सेवा व दया की आड़ में धर्म परिवर्तन का जो षड़यन्त्र चल रहा है, उसका सीधा प्रसारण इस कहानी में देखने को मिलता है। कहानी चर्च के साम्राज्यवाद को उघाड़ती है, उसका उद्देश्य भोले-भाले आदिवासियों का धर्मांतरण कर उसे अपनी जमीन व संस्कृति से उखाड़ना है। धर्म परिवर्तन के कारणों का भी रेखांकन यहां हुआ है हिन्दू धर्म की घोर उपेक्षा, शोषण व निर्धनता क कारण ही आदिवासी धर्म परिवर्तन को मजबूर होते हैं। लेखक का दृष्टिकोण निष्पक्ष एवं तटस्थ है। वे किसी धारा या विचारधारा की रौ में बहकर नहीं बोलते अपितु यथार्थ के सभी पहलुओं को परिदृश्य में लाते हैं।

‘विरासत’ शीर्षक कहानी में एक सेवानिवृत्त अधिकारी की दारुण स्थिति का मार्मिक चित्रण हुआ है। लम्बी कानूनी प्रक्रिया और वकीलों की भ्रष्ट नीतियों के कारण आम आदमी की कमर टूट जाती है और अन्ततः उसे न्याय के नाम पर अन्याय ही मिलता है। कानून के अंधेपन, बहरेपन और लूलेपन को दर्शाती है यह कहानी। ‘मै अकेला नहीं’ में नपुंसक प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ते कत्र्तव्यवान व ईमानदार अधिकारी की पीड़ा व संघर्ष को प्रस्तुत किया गया है। मजिस्ट्रेट कमलनाथ के दक्षतापूर्ण कार्य से पुलिस व अदालत की ऊपरी कमाई बन्द हो जाती है, वकीलों का काम-काज ठप्प हो जाता है। उसे संविधान में आस्था का पुरस्कार उच्चाधिकारियों की नाराजगी व डांट-डपट के रूप में प्राप्त होता है। परंतु अपनी जिम्मेवारियों के प्रति समर्पित कमलनाथ तमाम बाधाओं के बावजूद समझौता नहीं करता और अन्ततः विजयी होता है।

संग्रह में संकलित सभी कहानियां ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ तथा ‘राजस्थान पत्रिका’ जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। निसंदेह ये कहानियां पाठक को अन्याय के प्रति आक्रोशित करती हैं, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक करती हैं और संवेदनहीनता से मुक्त कर मानवीय संबंधों की गरिमा को पहचानने की परख देती हैं।

- कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 090342-86388

देश विदेश के मध्य सेतु बनाती कहानियां


दिव्या माथुर प्रवासी हिंदी लेखन की प्रतिनिधि रचनाकार हैं।मैथिलीशरण गुप्त प्रवासी लेखन सम्मान से सम्मानित दिव्या जी की साहित्यिक प्रतिभा गद्य और पद्य दोनों विधाओं में समानांतर रूप से गतिशील है। दिव्या जी 1984 में भारतीय उच्चायोग से जुड़ी और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। लंदन में बसे प्रवासी भारतीय लेखकों के बीच दिव्या जी अह्म स्थान रखती हैं। उनके सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह ‘2050 तथा अन्य कहानियां’ में संकलित कहानियां देश और विदेश के बीच के परिवेश को सामने लाती हैं। इन कहानियों का कथ्य भारत तथा लंदन दोनों देशों से जुड़कर बनता है।
प्रवासी जीवन सुखद और आकर्षक लगता है। परंतु इन कहानियों में प्रवासी जीवन की जो विड़म्बनायें चित्रित हुई हैं, वे विदेश के प्रति हमारे मोह को तोड़ती हैं और स्वदेश से जोड़ती हैं। अर्थकेंद्रीत पारिवारिक तथा सामाजिक संरचना की जकड़न में संवेदनाओं और भावनाओं का दम घुटने लगता है तो हमें देश और विदेश का फर्क साफ-साफ दिखाई देता है। यह फर्क दिव्या जी की कहानियों में प्रमुखता से उद्घाटित हुआ है। ये कहानियां इस मिथक को भी तोड़ती हैं कि सेक्सुअल इंडिपेडेंसी सेक्स अपराध को रोकती है। ‘वैलेन्टाइन्स डे’ और ‘नीली डायरी’ जैसी कहानियां इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं।
‘फिक्र’ में अपनी दूसरी मां के प्रति बेटी की घृणा प्रकट हुई है। ‘पुरु और प्राची’ कहानी बाजारवादी शक्तियों द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाये जाने को रेखांकित करती है। झूठी प्रतिष्ठा और शान के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले बद्रीनारायण ओसवाल और उसके पु़त्र-पुत्रवधू चंद्रमा की यात्रा पर चले तो जाते हैं परंतु इस यात्रा में सिवाय खीझ और दुख के उन्हें कुछ नहीं मिलता। ‘वैलेन्टाइन्स-डे’ मांसल प्रेम पर चोट करती है। ‘फैसला’ की भारतीय सास अपनी ब्रिटिश बहू से सांमजस्य नहीं बिठा पाती। पुत्र और मां दोनों ही ब्रिटिश बहू के प्रति दुराग्रहों से ग्रस्त हैं जबकि रेचल अपने पति और सास के प्रति समर्पित रहती है। अन्ततः सास अमृत को अपनी गलती का अहसास होता है और वह अपने बेटे-बहू से माफी मांग लेती है।
कहानियों में हिन्दी, अंग्रेजी और पंजाबी तीन भाषाओं का मिश्रित सौंदर्य पाठकों को आकर्षित करता है। हिंदी भाषा की शक्ति, सामर्थ्य तथा संप्रेषनीयता को एक प्रवासी लेखिका द्वारा जिस अंदाज में बयान किया गया है, वह प्रशंसनीय है। ‘सौ सुनार की’ शीर्षक कहानी का संवाद मुहावरों-लोकोक्तियों में चलता है। यह संवाद न केवल कथा को रोचक तथा सरस बनाता है अपितु हिन्दी के दर्जनों मुहावरों-लोकोक्तियों को संदर्भ सहित प्रस्तुत करता है। इन कहानियों में प्रूफ संशोधन का अभाव है। वर्तनी तथा वाक्य अशुद्धि के साथ कहीं-कहीं शब्दों का अनावष्यक प्रयोग मिलता है। इन त्रुटियों के प्रति प्रकाशक तथा लेखिका दोनों को सचेत रहने की आवश्यकता है।
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘2050’ प्रजाति-भेद पर आधारित श्रेष्ठ कहानी है। तथाकथित आधुनिक देशों में नस्ल और रंग-रूप के आधार पर होने वाले भेदभाव को जिस काल्पनिक शैली में उभारा गया है, वह दर्शनीय है। कहानी के एशियन दंपति ऋचा और वेद बच्चा पैदा करना चाहते हैं परंतु समाज सुरंक्षा परिषद के अधिकारी उन्हें अनुमति नहीं देते। भावी पीढ़ी को परफैक्ट बनाने की बात कहकर समाज सुरक्षा परिषद एशियन जोडों को बच्चा पैदा करने की अनुमति नहीं देती जबकि उनके अपने नागरिकों के लिए नियमों में काफी छूट है। ऋचा द्वारा अधिकारियों को मनाने की तमाम कोशिशें असफल रहती है। अवसादग्रस्त ऋचा जब आत्महत्या की इच्छा जताती है तो अधिकारियों द्वारा उसे आत्महत्या परामर्श परिषद का पता बता दिया जाता है। कहानी उत्तर आधुनिक सभ्यता के खोखलेपन तथा नस्लवाद के घिनौने यथार्थ को उभारती है।
दिव्या जी की इन कहानियों में परंपरा और आधुनिकता तथा प्रेम और सेक्स के बीच के अंतर को दर्शाया गया है। लेखिका सेक्स और आधुनिकता को तटस्थ रहकर व्यक्त करती हैं, वे अपनी निजी सोच और विचारधारा से घटनाओं को संचालित नहीं करती, अपितु कथानक को अपने जीवंत रूप से आकार लेने की स्वतंत्रता देती हैं। दिव्या जी न तो यथार्थ के प्रति आग्रहशील हैं, न ही आदर्श थोपना उनकी नीयत है। इस संग्रह की सभी कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।
कृति - 2050 तथा अन्य कहानियां
लेखक- दिव्या माथुर
प्रकाशक- डायमंड पॉकेट बुक्स, दिल्ली
मूल्य-300 रुपये
पृष्ठ-166

  कृष्ण कुमार अग्रवाल

Friday 19 August 2011

भावुक हृदय को अभिव्यक्त करती कहानियां

राजस्थान विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की सेवानिवृत्त अध्यक्षा श्रीमती सुरेखा सिन्हा साहित्य और संगीत के क्षेत्र में समानांतर रूप से सक्रिय रही हैं। श्रीमती सुरेखा जी का व्यक्तित्व और कृतित्व एक-दूसरे का पूरक है। उनका संपूर्ण जीवन साहित्य और संगीत की सेवा में लगा और अन्ततः जीवन के बाद भी उनका देहदान का संकल्प उनके प्रति श्रद्धानवत करता है। साहित्य और संगीत के साथ-साथ आध्यात्म, दर्शन और मनोविज्ञान आदि विषयों पर भी लेखिका का अधिकार है।

उनके सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘उस धूप की छांह’ की कहानियांे के कथानक उनके जीवनानुभवों का लेखा-जोखा है। लगभग सभी कहानियों में लेखिका अपने सगे-संबंधियों, मित्र-परिचितों के साथ बिताये लम्हों को स्मरण करते हुए कहानी लिखती हैं। इसलिए इन कहानियों को पढ़ते हुए एक तरफ जहां महादेवी वर्मा के संस्मरणों की याद ताजा हो जाती है, वहीं आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई ये कहानियां पाठक को जीवन के प्रति एक नई दृष्टि भी देती हैं। डॉ. सुरेखा जी की कुछ कहानियों में उनका पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम भी झलकता है। महादेवी वर्मा की तरह उनकी कहानियों में प्रयुक्त पशु पात्रों के प्रति लेखिका की संवेदना तथा अपनापन उनकी कहानियों को अलग पहचान देता है।

वस्तुतः इन कहानियों के सभी पात्र जिंदा हैं और डॉ. सुरेखा के परिवार, पड़ोस तथा शहर में उन्हें देखा जा सकता है, उनसे मिला जा सकता है। इन कहानियों की यह विशिष्टता भाव पक्ष को मजबूती प्रदान करती है तो शिल्प को कमजोर भी बनाती है। क्योंकि कहीं-कहीं लेखिका अत्यंत भावुक होकर एक घटना के बाद दूसरी घटना का सिलसिलेवार ब्यौरा-सा देने लगती हैं जहां कहानी का कहानीपन गायब होकर रचना की रोचकता और परिपक्वता को प्रभावित करने लगता है।

डॉ. सिन्हा की कहानियों में वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष चरित्र तथा मानसिकता में आये परिवर्तनों को समझा जा सकता है। उनकी कहानियों में एक तरफ जहां पुरुष चरित्र का घिनौनापन सामने आता है। वहीं कभी-कभी पुरुष अपने परिवार तथा पत्नी के सामने कितना बेबस हो जाता है, यह भी इन कहानियों में चित्रित हुआ है। संग्रह की ‘उलझी जिंदगी’ शीर्षक कहानी में पुरुष का अपनी और पराई स्त्री के प्रति भिन्न दृष्टिकोण प्रकट होता है, जो उसके दोगलेपन को दर्शाता है। चोपड़ा साहब मिसेज बंसल के बोल्ड नेचर तथा सिम्पल हार्टेड़ होने की प्रशंसा करते हैं वहीं अपनी पत्नी के प्रति उनके विचार अलग हैं। दूसरी ओर मिसेज बंसल टेलीविजन में काम करने के आकर्षण में फंसकर घर छोड़कर एक व्यक्ति के साथ भाग जाती है। मिसेज बंसल को घर वापिस लेने गए मिस्टर बंसल को जो जबाव सुनने को मिलते हैं, वे उल्लेखनीय हैं।

मिसेज बंसल कहती हैं-‘यह मेरा पर्सनल मामला है। आपसे मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैं शादी करूं या कुछ और करूं’, ‘मैं ऐसे आदमी से शादी कर रही हूं जो बहुत फ्री और ब्रोड-माइन्डेड हैं। मेरे प्रोग्राम कभी भी कहीं भी होंगे, उनको कोई ऐतराज नहीं होगा।’, ‘आपकी इज्जत और बच्चों के पीछे मैं अपने अरमानों का गला घोंटकर मर जाऊं? आप जा सकते हैं।’ इक्कीसवीं सदी की यह स्त्री न तो अपने पति से कोई अपना कोई संबंध मानती है और न बच्चों से। उसकी नजर में घर-परिवार बंधन है और वह किसी भी कीमत पर अपनी आजादी खोना नहीं चाहती।
 
इसी प्रकार ‘क्या करूं’ की स्त्री, जो डॉक्टर है अपने पति के गंवईपन के कारण अपने सर्किल में शर्मिन्दगी महसूस करती है। उसका स्टेटस जितना हाई होता जाता है, अपने पति के प्रति उसकी हीनता बढ़ती जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि पति, बच्चों को साथ लेकर गांव चला जाता है और डॉक्टर साहिबा अपने बहनोई के साथ रहने लगती हैं। परंतु अन्ततः उसे अपने पति और बेटे की याद आती है, परंतु अब कुछ नहीं हो सकता।
डॉ. सिन्हा की कहानियों में पारिवारिक आदर्शों की स्थापना के प्रति लेखिका का प्रयत्न प्रशंसनीय है। उक्त दोनों कहानियों में स्त्री पात्रों के भटकाव के बावजूद कहानी का अंत आदर्शों को बनाये रखता है। ‘संबंधों के सोपान’ शीर्षक कहानी में सास-बहू संबंध के बीच की जो मधुरता, समझ तथा समर्पण अभिव्यक्त हुआ है, वह वर्तमान टेलीविजन धारावाहिकों में प्रस्तुत सास-बहू संबंध से सर्वथा भिन्न है।

‘उस धूप की छांह’ कहानी कैंसर पीड़ित नायिका के जीवन संघर्ष को व्यक्त करती है। ‘लय के विपरीत’ कहानी जीवन के असली अर्थों को बयान करती है। बेहद छोटे कथानक के माध्यम से लेखिका यह स्पष्ट करने में सफल रही है कि जीवन का असली आनंद उच्छृंखलता में नहीं अपितु सादगी में है। ‘प्रिया’ में पर्दा प्रथा के विरुद्ध एक नारी का संघर्ष तथा उसकी सफलता को दर्ज किया गया है।

‘जीने का अंदाज’ कहानी नारी जीवन की विड़म्बना पर प्रकाश डालती है। कहानी उस अवधारणा पर चोट करती है जिसके अंतर्गत नारी-सशक्तिकरण के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण हथियार बताया जाता है। लेखिका ऐसी अनेक महिलाओं का परिचय अपनी इस कहानी में देती हैं जो ऊंचे पदों पर काम करने के बावजूद भी अपने घरों में शोषण का शिकार हैं। वस्तुतः महिला-सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा हमारी पुरातनपंथी मानसिकता है।

एक तरफ नारी के लिए अनेक सीमाओं तथा मर्यादाओं की बात की जाती हैं, दूसरी ओर पुरुष के प्रति इस प्रकार का कोई नियम-कानून नहीं है। ‘दामिनी’ की दामिनी अपने पति के रुखे व्यवहार से पीड़ित है। एम.ए. पास तथा पीएच.डी. में रजिस्टर्ड दामिनी अपने पति की इग्नोरेंस तथा वाग्वानों की परवाह न करते हुए पूरी लगन से अपना काम करती है और विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद प्राप्त कर लेती है। परंतु पति का शुष्क व्यवहार उसे आज भी सालता है।

 
ल्ेखिका की संवेदनशीलता तथा कोमल-हृदयता को इन कहानियों में कई जगह अनुभव किया जा सकता है। वस्तुतः लेखिका अपने घर-परिवार, पास-पड़ोस तथा अपने परिवेश से गहराई से जुडी हैं। उनका अपने परिवार, अपनी सहेलियों तथा अपने पशु-पक्षियों से लगाव तथा जुड़ाव इन कहानियों की घटनाओं में अभिव्यक्त होता है। लेखिका अपने घर में निकले सांप को इसी शर्त पर पकड़ने देती हैं कि सपेरा उसे जंगल में छोड़ देगा। सड़क पर घायल अवस्था में मिले तोते की सेवा-सुश्रुषा करती हैं तो अपने घर की पालतू कुतिया ‘जूली’ के लिए वे एक पूरी कहानी लिख डालती हैं। 

डॉ. सुरेखा सिन्हा की कहानियां उनके भावुक हृदय की अभिव्यक्तियां हैं। शिल्पगत स्तर पर इन कहानियों में घटनाओं की वर्णनात्मकता कहानी के शिल्प को प्रभावित करते हुए संस्मरण तथा आत्मकथा विधा के ज्यादा निकट है। फिर भी इन कहानियों में जो आदर्श तथा मूल्य रेखांकित हुए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। 

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक का नाम- उस धूप की छांह
लेखिका- डॉ. सुरेखा सिन्हा
प्रकाशक- साहित्यागार
   धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर सं. 2011
मूल्य- 175 रुपये


Tuesday 16 August 2011

बदलते जीवन में उपजी विसंगतियों का रेखांकन


हिंदी साहित्य को राजस्थान के योगदान की जब-जब चर्चा होती है तो यादवेन्द्र  शर्मा ‘चन्द्र’ का नाम उल्लेख्य रचनाकारों में गिना जाता है। कुछ माह पूर्व उनका देहांत हो गया। यादवेन्द्र जी लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में रचनाशील रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ अन्य कई विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित चन्द्र जी ने जहां हिंदी साहित्य को अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं देकर समृद्ध किया वहीं राजस्थानी भाषा में भी अनेक कृतियों की रचना की। उनकी ताजा कहानियों का संग्रह ‘वाह किन्नी, वाह’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

यादवेन्द्र जी के लेखनकर्म की यह विशेषता रही है कि उनकी रचनाओं में राजस्थानी परिवेश व संस्कृति का प्रतिबिंब देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं के पात्र अस्वाभाविक न होकर जीवंत होते हैं। दूसरा, उनका कहन इतना सहज होता है, जैसे पाठक अपने आस-पास की ही कोई घटना सुन-पढ़ रहा होता है।

लेखक का उद्देश्य है दुष्ट-से-दुष्ट आदमी के भीतर की अच्छी संवेदनाओं और संघर्ष की तलाश।  ‘तरेडों वाली औरत’ कहानी की नायिका अरण्डी अपनी सौतेली बेटी ममूडी से दुर्व्यवहार करती है, उस पर अत्याचार करती है, वह उसे बेचकर अपने पति की सारी जायदाद का मालिक अपनी संतान को बनाना चाहती है। परंतु अन्ततः उसकी संवेदना जागती है। अपराधबोध से ग्रस्त अरण्डी अपनी मौसी के नापाक इरादों को विफल कर देती है और ममूडी को अपने गले लगाकर अपने पति को सब सच बता देती है।

समय, समाज व हमारी बदली परिस्थितियों का अंकन इन कहानियों में हुआ है। अमानवीयता, अपसंस्कृति और अवमूल्यन के प्रति गहरी चिंता के साथ लेखक पाठक को सकारात्मक मूल्यबोध की ओर बढ़ने को प्रेरित करता है। ‘अस्तित्व का विद्रोह’ कहानी हरदास के माध्यम से संपूर्ण इंसानियत के अस्तित्व के विद्रोह को दर्शाती है। इक्कीसवीं सदी के उत्तर आधुनिक परिवेश में यह मानव जाति की विडम्बना ही कही जानी चाहिए कि आज भी आदमी, आदमी की गुलामी करने को अभिशप्त है। ‘मैं भी आदमी हूं’ वाक्य विकसित मानव सभ्यता पर करारा प्रहार है।

‘स्वर्ण नदी रेत की’ में आधुनिक समाज के रिश्तों का खोखलापन उजागर हुआ है। सवर्ण पुनीता अपने घर-परिवार के विरोध के बावजूद दलित दिगन्त से प्रेम विवाह करती है परंतु दिगन्त उससे दुव्यर्वहार करता है। वह अपनी युवा नौकरानी से शारीरिक संबंध बनाता है और पुनीता को उसके
कार्यों में दखल न देने की धमकी देता है। मां-पिता की अनबन के मध्य अशेष स्वयं को बेहद अकेला महसूस करता है। वह पुनीता के कहने पर भी रूकना नहीं चाहता। अवसादग्रस्त अशेष पुनीता की कोई बात नहीं सुनता। वह कहता है- ‘‘मैं मां-बाप के बीच में अकेला ही रहा हूं। जानता ही नहीं मां की ममता और पिता का स्नेह क्या होता है? मां! मुझे रुपये दो। मैं अपना इरादा नहीं बदलूंगा। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो किसी भी दुर्घटना की तुम जिम्मेवार होगी।’’ (पृ. 60)

‘अम्बिया’ में कन्या भ्रूण हत्या के फलस्वरूप पैदा हुई सामाजिक विसंगतियां चित्रित हुई हैं। अम्बिये को अपना विवाह नामुमकिन लगता है परंतु रंगा ठाकुर तीन हजार रूपये और विवाह के खर्च पर उसका विवाह फागली से करवा देता है। अम्बिया फागली को पूरी इज्जत देता है और उसका पूरा ख्याल रखता है। भाव विह्वल फागली की मां के ये शब्द सामाजिक संरचना के विद्रूप को उघाड़ते हैं- ‘‘सच कहती है कि बेटी के रुपये लेते हुए बड़ा दुख और लाज से सिर झुकता है, पर न लें तो अपने घर के बेटे कैसे दोपाये से चोपाये बनें। पैसा तेरा लिया और तेरे भाई सुखदेव का दे दिया। या फिर छोरी के बदले छोरी दे देते हैं। हम लोगो की यही व्यवस्था है। जबकि कन्या दान धर्म से करना चाहिए, पैसा लेकर नहीं।’’ (पृ. 67)

‘कालकी गोरकी’ शीर्षक कहानी रंग-रूप से भिन्न दो जुडवां बहनों के साहस की कहानी है। ये दोनों बहनें एक शहीद की बेटियां हैं जो गांव में होने वाले प्रत्येक कार्य में अपनी भूमिका रखती हैं। वे गांव में किसी पर भी अन्याय व अत्याचार को सहन नहीं करती। अपने विवाह के समय वर पक्ष की अनुचित मांगों का वे मुखर विरोध करती हैं और विवाह से इंकार कर देती हैं। वे बारात को घर की दहलीज से लौटाना अपसकुन नहीं समझती। ‘‘क्या काली छोरियों के गांव अलग बसते हैं? क्या काली छोरियां कुंवारी ही मरती हैं? इस गांव में अनेक काली लुगाइयां हैं और सब विवाहिता हैं। कान खोल कर सुन लीजिए और आप बारात लेकर वापस चले जाइए। हम ऐसे लड़कों से विवाह नहीं करेंगी जो रंग-रूप की जगह लड़की के गुण नहीं देखते। जाइए, अपना काला मुंह लेकर जाइए।’’ (पृ. 76) ग्रामीण युवतियों का परंपरा के प्रति विद्रोह और साहस इस कहानी को विशिष्टता प्रदान करता है।

‘सच का दायरा’ में कई वर्षों बाद अपने पैतृक गांव लौटे दंपत्ति गांव में हुए परिवर्तनों को देखकर हक्के-बक्के रह जाते हैं। ओद्यौगिकरण के विस्तार ने गांवों की सौम्यता व निष्चलता को तबाह कर दिया है, कहानी इस ओर संकेत करती है। ‘घरौंदा नहीं, घर’ की सरोजा अपने पति व ससुर के अत्याचारों से तंग आकर घर छोड़ देती है। शिक्षित सरोजा अपने अधिकारों से परिचित है। वह अपने पति को चेतावनी देते हुए कहती है-‘‘पत्नी सदा सहन करती है कि घर का नंगापन बाहर न जाये पर आप तो अन्याय पर अन्याय कर रहे हैं। सुनिये, मैं तीन दिनों की मोहलत देती हूं फिर मैं अदालत के दरवाजे खटखटाऊंगी।’’ (पृ. 99) बी.कॉम. पास सरोजा सरकारी नौकरी पा लेती है और अनामिका को गोद लेकर अपनी एक अलग दुनिया बसाती है। ‘पर्दा, जीवन और सच’ आधुनिक सिनेमा जगत की अपसंस्कृति को उजागर करती है। हिंसा, अपराध और दुष्कर्म की शिक्षा दे रहे टी.वी. व सिनेमा कार्यक्रम पश्चिमी बर्बर चमकदार संस्कृति को प्रोत्साहन दे रहे हैं और समाज को अंधी खाई में धकेल रहे हैं।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘हत्यारे’ छोटे से कथानक में एक बडे प्रश्न की ओर ध्यान दिलाती है। मात्र दो पात्रों के संवाद के माध्यम से लेखक मनुष्य की मनुष्यता की पोल खोलने में सफल रहा है। कहानी में कहे गए ये शब्द निःसंदेह मानव जाति को सोचने पर विवश करते हैं कि क्या वास्तव में वह दुनिया का सबसे सभ्य और श्रेष्ठ प्राणी है? ‘‘आप बाजार में खडे हैं, बम फट गया। रेल में जा रहे हैं, विस्फोट हो गया। बस में यात्रा कर रहे हैं, गोलियों से भून दिया गया। राह चल रहे हैं, कोई छुरा भोंक गया। बताइये, आदमी से बडा हत्यारा कोई है? वह सबसे खूंखार हो रहा है। उससे सारे जीव-जंतु डरते हैं। उससे ज्यादा अभी इस पृथ्वी पर कोई भी भयंकर आदमखोर नहीं है। क्या उसे देखकर हिंसक जानवर आने की हिम्मत कर सकता है।’’ (पृ. 130)

इस प्रकार ये कहानियां युगीन समस्याओं से गहरा सरोकार रखती हैं। वे न केवल पाठक को सोचने पर विवश करती हैं अपितु समस्या के समाधान के प्रति कुछ कर गुजरने को भी उकसाती हैं। अन्याय, अत्याचार व दमन के विरुद्ध खड़ा होकर स्वाभिमान के साथ उसका मुकाबला करने की ताकत इन कहानियों में विद्यमान है। इन कहानियों में चित्रित नारी पात्र बेबस न होकर संघर्षशील हैं, वे अपने अधिकारों को जानती हैं और अपने हक की लडाई लड़ती हैं।

कहानीकार की भाषा शैली तथा वर्णन शैली पाठकों को बांधती  है। राजस्थानी भाषा के आंचलिक शब्दों का सौंदर्य यहां झलकता है। साफ-सुथरी अभिव्यंजना रोचकता व औत्सुक्य गुणों से युक्त है। कहानियों में चित्रित पात्रों के नाम आंचलिक हैं जो आकर्षित करते हैं। कथानक की सुघड़ता, पात्रों का निर्वाह, शिल्प की सहजता, भावों की सरल संप्रेषणीयता तथा उद्देश्य की स्पष्टता आदि विशेषताएं चन्द्र जी जैसे मंजे हुए कहानीकार के परिपक्व तथा अनुभवी दुष्टिकोण को प्रमाणित करती हैं।

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक-वाह किन्नी, वाह (कहानी संग्रह), लेखक-यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, प्रकाशक-वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-02, प्रथम संस्करण 2009 मूल्य-200 रुपये,