Tuesday 16 August 2011

बदलते जीवन में उपजी विसंगतियों का रेखांकन


हिंदी साहित्य को राजस्थान के योगदान की जब-जब चर्चा होती है तो यादवेन्द्र  शर्मा ‘चन्द्र’ का नाम उल्लेख्य रचनाकारों में गिना जाता है। कुछ माह पूर्व उनका देहांत हो गया। यादवेन्द्र जी लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में रचनाशील रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ अन्य कई विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित चन्द्र जी ने जहां हिंदी साहित्य को अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं देकर समृद्ध किया वहीं राजस्थानी भाषा में भी अनेक कृतियों की रचना की। उनकी ताजा कहानियों का संग्रह ‘वाह किन्नी, वाह’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

यादवेन्द्र जी के लेखनकर्म की यह विशेषता रही है कि उनकी रचनाओं में राजस्थानी परिवेश व संस्कृति का प्रतिबिंब देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं के पात्र अस्वाभाविक न होकर जीवंत होते हैं। दूसरा, उनका कहन इतना सहज होता है, जैसे पाठक अपने आस-पास की ही कोई घटना सुन-पढ़ रहा होता है।

लेखक का उद्देश्य है दुष्ट-से-दुष्ट आदमी के भीतर की अच्छी संवेदनाओं और संघर्ष की तलाश।  ‘तरेडों वाली औरत’ कहानी की नायिका अरण्डी अपनी सौतेली बेटी ममूडी से दुर्व्यवहार करती है, उस पर अत्याचार करती है, वह उसे बेचकर अपने पति की सारी जायदाद का मालिक अपनी संतान को बनाना चाहती है। परंतु अन्ततः उसकी संवेदना जागती है। अपराधबोध से ग्रस्त अरण्डी अपनी मौसी के नापाक इरादों को विफल कर देती है और ममूडी को अपने गले लगाकर अपने पति को सब सच बता देती है।

समय, समाज व हमारी बदली परिस्थितियों का अंकन इन कहानियों में हुआ है। अमानवीयता, अपसंस्कृति और अवमूल्यन के प्रति गहरी चिंता के साथ लेखक पाठक को सकारात्मक मूल्यबोध की ओर बढ़ने को प्रेरित करता है। ‘अस्तित्व का विद्रोह’ कहानी हरदास के माध्यम से संपूर्ण इंसानियत के अस्तित्व के विद्रोह को दर्शाती है। इक्कीसवीं सदी के उत्तर आधुनिक परिवेश में यह मानव जाति की विडम्बना ही कही जानी चाहिए कि आज भी आदमी, आदमी की गुलामी करने को अभिशप्त है। ‘मैं भी आदमी हूं’ वाक्य विकसित मानव सभ्यता पर करारा प्रहार है।

‘स्वर्ण नदी रेत की’ में आधुनिक समाज के रिश्तों का खोखलापन उजागर हुआ है। सवर्ण पुनीता अपने घर-परिवार के विरोध के बावजूद दलित दिगन्त से प्रेम विवाह करती है परंतु दिगन्त उससे दुव्यर्वहार करता है। वह अपनी युवा नौकरानी से शारीरिक संबंध बनाता है और पुनीता को उसके
कार्यों में दखल न देने की धमकी देता है। मां-पिता की अनबन के मध्य अशेष स्वयं को बेहद अकेला महसूस करता है। वह पुनीता के कहने पर भी रूकना नहीं चाहता। अवसादग्रस्त अशेष पुनीता की कोई बात नहीं सुनता। वह कहता है- ‘‘मैं मां-बाप के बीच में अकेला ही रहा हूं। जानता ही नहीं मां की ममता और पिता का स्नेह क्या होता है? मां! मुझे रुपये दो। मैं अपना इरादा नहीं बदलूंगा। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो किसी भी दुर्घटना की तुम जिम्मेवार होगी।’’ (पृ. 60)

‘अम्बिया’ में कन्या भ्रूण हत्या के फलस्वरूप पैदा हुई सामाजिक विसंगतियां चित्रित हुई हैं। अम्बिये को अपना विवाह नामुमकिन लगता है परंतु रंगा ठाकुर तीन हजार रूपये और विवाह के खर्च पर उसका विवाह फागली से करवा देता है। अम्बिया फागली को पूरी इज्जत देता है और उसका पूरा ख्याल रखता है। भाव विह्वल फागली की मां के ये शब्द सामाजिक संरचना के विद्रूप को उघाड़ते हैं- ‘‘सच कहती है कि बेटी के रुपये लेते हुए बड़ा दुख और लाज से सिर झुकता है, पर न लें तो अपने घर के बेटे कैसे दोपाये से चोपाये बनें। पैसा तेरा लिया और तेरे भाई सुखदेव का दे दिया। या फिर छोरी के बदले छोरी दे देते हैं। हम लोगो की यही व्यवस्था है। जबकि कन्या दान धर्म से करना चाहिए, पैसा लेकर नहीं।’’ (पृ. 67)

‘कालकी गोरकी’ शीर्षक कहानी रंग-रूप से भिन्न दो जुडवां बहनों के साहस की कहानी है। ये दोनों बहनें एक शहीद की बेटियां हैं जो गांव में होने वाले प्रत्येक कार्य में अपनी भूमिका रखती हैं। वे गांव में किसी पर भी अन्याय व अत्याचार को सहन नहीं करती। अपने विवाह के समय वर पक्ष की अनुचित मांगों का वे मुखर विरोध करती हैं और विवाह से इंकार कर देती हैं। वे बारात को घर की दहलीज से लौटाना अपसकुन नहीं समझती। ‘‘क्या काली छोरियों के गांव अलग बसते हैं? क्या काली छोरियां कुंवारी ही मरती हैं? इस गांव में अनेक काली लुगाइयां हैं और सब विवाहिता हैं। कान खोल कर सुन लीजिए और आप बारात लेकर वापस चले जाइए। हम ऐसे लड़कों से विवाह नहीं करेंगी जो रंग-रूप की जगह लड़की के गुण नहीं देखते। जाइए, अपना काला मुंह लेकर जाइए।’’ (पृ. 76) ग्रामीण युवतियों का परंपरा के प्रति विद्रोह और साहस इस कहानी को विशिष्टता प्रदान करता है।

‘सच का दायरा’ में कई वर्षों बाद अपने पैतृक गांव लौटे दंपत्ति गांव में हुए परिवर्तनों को देखकर हक्के-बक्के रह जाते हैं। ओद्यौगिकरण के विस्तार ने गांवों की सौम्यता व निष्चलता को तबाह कर दिया है, कहानी इस ओर संकेत करती है। ‘घरौंदा नहीं, घर’ की सरोजा अपने पति व ससुर के अत्याचारों से तंग आकर घर छोड़ देती है। शिक्षित सरोजा अपने अधिकारों से परिचित है। वह अपने पति को चेतावनी देते हुए कहती है-‘‘पत्नी सदा सहन करती है कि घर का नंगापन बाहर न जाये पर आप तो अन्याय पर अन्याय कर रहे हैं। सुनिये, मैं तीन दिनों की मोहलत देती हूं फिर मैं अदालत के दरवाजे खटखटाऊंगी।’’ (पृ. 99) बी.कॉम. पास सरोजा सरकारी नौकरी पा लेती है और अनामिका को गोद लेकर अपनी एक अलग दुनिया बसाती है। ‘पर्दा, जीवन और सच’ आधुनिक सिनेमा जगत की अपसंस्कृति को उजागर करती है। हिंसा, अपराध और दुष्कर्म की शिक्षा दे रहे टी.वी. व सिनेमा कार्यक्रम पश्चिमी बर्बर चमकदार संस्कृति को प्रोत्साहन दे रहे हैं और समाज को अंधी खाई में धकेल रहे हैं।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘हत्यारे’ छोटे से कथानक में एक बडे प्रश्न की ओर ध्यान दिलाती है। मात्र दो पात्रों के संवाद के माध्यम से लेखक मनुष्य की मनुष्यता की पोल खोलने में सफल रहा है। कहानी में कहे गए ये शब्द निःसंदेह मानव जाति को सोचने पर विवश करते हैं कि क्या वास्तव में वह दुनिया का सबसे सभ्य और श्रेष्ठ प्राणी है? ‘‘आप बाजार में खडे हैं, बम फट गया। रेल में जा रहे हैं, विस्फोट हो गया। बस में यात्रा कर रहे हैं, गोलियों से भून दिया गया। राह चल रहे हैं, कोई छुरा भोंक गया। बताइये, आदमी से बडा हत्यारा कोई है? वह सबसे खूंखार हो रहा है। उससे सारे जीव-जंतु डरते हैं। उससे ज्यादा अभी इस पृथ्वी पर कोई भी भयंकर आदमखोर नहीं है। क्या उसे देखकर हिंसक जानवर आने की हिम्मत कर सकता है।’’ (पृ. 130)

इस प्रकार ये कहानियां युगीन समस्याओं से गहरा सरोकार रखती हैं। वे न केवल पाठक को सोचने पर विवश करती हैं अपितु समस्या के समाधान के प्रति कुछ कर गुजरने को भी उकसाती हैं। अन्याय, अत्याचार व दमन के विरुद्ध खड़ा होकर स्वाभिमान के साथ उसका मुकाबला करने की ताकत इन कहानियों में विद्यमान है। इन कहानियों में चित्रित नारी पात्र बेबस न होकर संघर्षशील हैं, वे अपने अधिकारों को जानती हैं और अपने हक की लडाई लड़ती हैं।

कहानीकार की भाषा शैली तथा वर्णन शैली पाठकों को बांधती  है। राजस्थानी भाषा के आंचलिक शब्दों का सौंदर्य यहां झलकता है। साफ-सुथरी अभिव्यंजना रोचकता व औत्सुक्य गुणों से युक्त है। कहानियों में चित्रित पात्रों के नाम आंचलिक हैं जो आकर्षित करते हैं। कथानक की सुघड़ता, पात्रों का निर्वाह, शिल्प की सहजता, भावों की सरल संप्रेषणीयता तथा उद्देश्य की स्पष्टता आदि विशेषताएं चन्द्र जी जैसे मंजे हुए कहानीकार के परिपक्व तथा अनुभवी दुष्टिकोण को प्रमाणित करती हैं।

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक-वाह किन्नी, वाह (कहानी संग्रह), लेखक-यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, प्रकाशक-वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-02, प्रथम संस्करण 2009 मूल्य-200 रुपये,

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