Thursday 11 August 2011

एक नए आंदोलन का सूत्रपात करती कहानी

एक नए आंदोलन का सूत्रपात करती कहानी

इक्कीसवीं सदी के उत्तर आधुनिक परिवेश में प्रवेश कर चुकी मानव सभ्यता ने विकास के अनेकों नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, सूचना-संचार व प्रोद्यौगिकी के दंभ में चूर मनुष्य चंद्रमा पर कॉलोनियां बसाने व समुद्र की सतह पर रेस्तरां बनाने जैसे हैरतअंगेज सपनों को साकार करने की दिशा में अग्रसर है। परंतु विकास के मायने विड़म्बना से ग्रस्त है। यह सदी एक तरफ जहां अनेक उपलब्धियों का आकर्षण अपने साथ लिए है उससे कहीं अधिक विसंगतियां भी इसके गर्भ में पल-बढ़ रही हैं। ‘‘हमारे संस्कारों में लूट खसोट, जातिगत ऊंच-नीच की भावना आज भी यूं की यूं बरकरार है। हमारे समाज में जातियों की कबीलाई संस्कृति आज भी यूं की यूं पैठ बनाए हुए है। एक-दूसरे के हक को हड़पने की प्रवृत्ति ने आज भी पीछा नहीं छोड़ा है। आज भी ऐसे लोग हैं जो हजारों वर्षों पहले के विभाजन पर आधारित वर्ण व्यवस्था या संस्कृति को महान बताकर उसी अनुसार आचरण करते हैं।’’

साहित्य ने इन विसंगतियों को बेहद करीब से महसूस किया है। आज साहित्य में शोषित, पीडित, सर्वहारा व दलित वर्ग के पक्ष में जो आंदोलन चल रहे हैं, वे यूंही नहीं पनपे हैं अपितु सदियों का दमन, शोषण, उत्पीडन व तिरस्कार इस विरोध व विद्रोह की पृष्ठभूमि में है। दलित साहित्य इसी प्रकार का एक आंदोलन है जो दलितों के जीवन, उनके सुख-दुःख, उनकी सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों, उनकी संस्कृति, उनकी आस्थाओं-अनास्थाओं, उनके शोषण व उत्पीडन तथा इस उत्पीडन-शोषण के दलितों द्वारा प्रतिरोध की परिस्थितियों को व्यापकता तथा गहराई के साथ, कलात्मकता से प्रस्तुत करता है।

डॉ. राजेन्द्र बड़गूजर दलित लेखन के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। दलित साहित्य लेखन में वे अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं उनकी यह पहचान न केवल दलित हितों के पक्ष में लेखन के कारण है अपितु उन्होंने दलितों के मध्य अनेक सामाजिक कार्य भी किए हैं। डॉ. बड़गूजर का एक कविता संग्रह ‘मनु का पाप’ व एक कहानी संग्रह ‘कसकः एक दलित टीस’ प्रकाशित हो चुके हैं। भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली से ‘अम्बेड़कर फैलोशिप अवार्ड’ से पुरस्कृत डॉ. बड़गूजर राधाकृष्ण सनातन धर्म महाविद्यालय, कैथल में हिन्दी के प्रवक्ता हैं। अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार उन्होंने दलित बस्तियों में जा-जाकर दलित बच्चों और युवाओं को शिक्षा की महत्ता का न केवल बोध कराया है अपितु वे स्वयं स्कूल न जाने वाले दलित बच्चों को अध्यापन कराते रहे हैं और अनेक निर्धन दलित बच्चों को उन्होंने विद्यालयों में दाखिला भी दिलवाया है।

बड़गूजर जी की लम्बी कहानी ‘हमारी जमीन हम बोएंगे, हम बोएंगे, हम बोएंगे!’ दलित विमर्श की दिशा में एक मील के पत्थर के समान है क्योंकि इस कहानी में उठाया गया मुद्दा जितना जरुरी है उतना ही महत्वपूर्ण भी। कहानी का र्शीषक ही जैसे पूरे मंतव्य को अभिव्यक्त कर देता है। दलितों की बुनियादी समस्याओं को समझना व उनके समाधान को खोजे बगैर दलित विमर्श अपने मकसद पूरे करने में सफल नहीं हो सकता। डॉ. बड़गूजर इस सत्य से भली-भांति परिचित हैं। वे अपने लेखन में ऐसे ही विषयों को उठाते है जो दलित वर्ग की असल समस्याएं हैं और वे इन विषयों को इतनी कुशलता से अभिव्यक्त करते हैं कि आम-खास दोनों ही वर्ग उनसे सहमति जताते हैं।



कहानी में लेखक दलितोत्थान से जुड़े दो विषयों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। पहला शिक्षा की अनिवार्यता और दूसरा गांवों की पंचायती जमीन में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित जमीन पर स्वयं दलितों द्वारा खेती का और उनके अपने स्वामित्व का। कहानी का नायक राजकमल गांव में अपने भाषण में शिक्षा को एक सशक्त हथियार की संज्ञा देता है। वह कहता है कि एक शिक्षित व्यक्ति ही अपने अधिकारों को जानने में सक्षम है और अपने समाज के उत्थान के लिए कार्य कर सकता है। शिक्षा को विकास का माध्यम बताते हुए वह कहता है कि ‘‘हमारे समाज को अगर किसी चीज की जरुरत है तो वह है शिक्षा, शिक्षा और केवल शिक्षा। शिक्षा के बिना ऐसा कोई भी साधन नहीं है जिसकी मार्फत हमारा विकास हो सकता हो।’’ वह दलित शिक्षित युवाओं पर यह जिम्मेवारी डालता है कि ‘‘हम पढ़े लिखे हैं। हमारी जिम्मेवारी बन जाती है कि हम अपने समाज की बदहाली को गुनें और उसे दूर करने के संभावित उपाय खोजें।’’

सन् 1964 में बने ‘विलेज कॉमन लैण्ड रूल्ज’ के मुताबिक गांव की कुल कृषि योग्य उपजाऊ भूमि का 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति, पिछड़े वर्ग तथा आजादी के बाद युद्धों में मारे गए सैनिकों के आश्रितों के लिए आरक्षित है। परंतु इस भूमि को सवर्ण वर्ग ही बोता आ रहा है। अशिक्षित, निर्धन व हीन-भावना से ग्रस्त दलित वर्ग सवर्ण वर्ग की चिकनी-चुपड़ी बातों में अपने अधिकार अर्थात जमीन को सवर्ण वर्ग को दे देता है। प्रस्तुत कहानी में इसी विषय को केंद्रित किया गया है। कहानी का नायक राजकमल और उसके साथी दलित वर्ग के प्रतिनिधि शिक्षित कार्यकर्त्ता हैं। वे गांव-गांव जाकर गांववासी दलितों को जागरुक करने का कार्य करते हैं। वे गांव में दलित वर्ग के लिए आरक्षित भूमि पर दलितों का स्वामित्व चाहते हैं। वे गांववासियों को समझाते हैं कि वे अपने अधिकारों को न गवायें क्योंकि इससे न केवल उनका आर्थिक उत्थान होगा, बल्कि सामाजिक समानता की दिशा में भी इसका सकारात्मक प्रभाव होगा।

लेखक राजनीतिक षड़यंत्र को बेनकाब करते हुए भारतीय राजनीति के घिनौनेपन के साथ-साथ दलित राजनीति की दलितोत्थान में अपर्याप्त भूमिका पर भी प्रहार करता है। वह ग्रामीणों को संगठित होने का आह्वान करते हुए कहता है- ‘‘कुछ तो सरकार की नीयत ठीक नहीं और कुछ हमारे में से ही ऐसे नेता हें जो उनके पिछलग्गू हैं जो स्वार्थों में पड़े रहते हैं। पूरे समाज का स्वार्थ कोई नहीं देखता। छह हजार से ज्यादा जातियों में हमें बांट दिया, हम आपस में ही लड़ते रहते हैं। अगर चमार, भंगी, सैंसी, ओड़, धानक एक नहीं हुए तो वे लोग हमें एक-एक करके खत्म कर डालेंगे।’’ लेखक को इस बात का बहुत क्षोभ है कि दलित वर्ग में पढ़ा-लिखा व शक्ति संपन्न वर्ग जिसका अपने समाज के उत्थान व विकास के प्रति उत्तरदायित्व बनता है, वह अपनी जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाह है, अपने कर्त्तव्यों से विमुख है। यह वर्ग सुविधाएं पा लेने के बाद उसी तंत्र का हिस्सा बन गया है जो सदियों से उनका शोषण-उत्पीड़न करता आ रहा है। ‘‘जिन लोगों को समर्थ होकर समाज का नेतृत्व करना चाहिए था, वे निष्क्रिय होकर भेदभाव पर आधारित संस्कृति के पोषकों के पक्ष में जाकर खड़े हो गए हैं। उनकी निष्क्रियता ही हमारा सबसे बड़ा अभिशाप है।

समाज में जितना अंधविश्वास, किस्मत, भाग्यवाद, देवी-देवतावाद, स्वर्ग-नरक का झांसावाद फैला हुआ है उसके निराकरण के लिए बाबा साहब अंबेड़कर का साहित्य पढ़कर समाज को उस झांसे से निकालने को कार्य तो पढ़े लिखे लोगों को ही करना था परन्तु वे स्वयं उसी दलदल में फंसे हुए हैं। केवल पांच, ज्यादा से ज्यादा दस प्रतिशत सुविधाप्राप्त दलित अपनी जिम्मेवारी को समझकर बाबा साहब के सपने पूरे होने की दिशा में काम कर रहा है बाकि तो अपने में मस्त है।’’ लेखक संपन्न दलितों का भी समर्थन इस आंदोलन में चाहता है।

लेखक किसी प्रकार के पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त नहीं है। एक तरफ वह जहां सवर्णों द्वारा दलित वर्ग के शोषण को रेखांकित करता है वहीं सवर्ण वर्ग के उस तबके की ओर भी संकेत करता है जो दलितों के पक्ष में हैं। वह दलित वर्ग की अपनी कमजोरियों व गंदी आदतों का भी जिक्र करता है। वह उन्हें छुपाता नहीं, बल्कि उघाड़ता है। ताकि दलित समुदाय अपनी न्यूनताओं को जानें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करंे। जातिगत यथार्थ निम्न पंक्तियों में द्रष्टव्य है-‘‘सैंसी आज तक भेडों में उलझे हुए हैं। भेड़ चराते हैं, दारू पीते हैं, बस और क्या चाहिए। छोटे-छोटे बच्चे कुरड़ियों पर बीड़ी के डंडूक चुगते फिरते हैं। आप ताश खेलते हैं। महिलायें दूसरे घरों में झाडू पोचा करती हैं।’’



लेखक पंचायती जमीन पर अनुसूचित जाति द्वारा स्वयं काश्त करने पर बल देता है। कहानी के पात्र राजकमल व उसके साथी तथा चार युवा विद्यार्थी इस कार्य के लिए तत्पर हैं कि गांव पाडला के दलित इस बार बोली को अपने पक्ष में छुडवा लेंगे और स्वयं काश्त करेंगे। राजकमल अपने भाषण में बताता है कि पूरे प्रदेश के गांवों में अनुसूचित वर्ग के लिए जो जमीन आरक्षित है उससे उन्हें करोडों रुपये का मुनाफा हो सकता है। जिससे दलित समुदाय की अधिकांश समस्याएं हल हो सकती हैं। वह गांववासियों को झकझोरते हुए कहता है कि ‘‘गांव में जब भी दलित और सवर्ण के झगड़े होते हैं तो सवर्ण जमीन का दंभ दिखाकर सबसे पहले खेतों में बंदी लगाते हैं। घास-फूंस, जंगल-पानी के लिए वे अपने खेतों में हमें जाने से रोकते हैं।...जमीन हमारी तो पूरा बगड़ चाहे कितना ही न्यार पशुओं को चराएं। आप अपनी जमीन लेकर जमींदार को सौंप कर खुद उसमें मजदूरी करते हो। आप स्वयं मालिक बनकर मजदूर बन जाते हो। इससे बडी शर्म की बात नहीं हो सकती।’’ ग्रामीणों के एक स्वर में यह कहने पर कि वे अपनी जमीन छुडवायेंगे और स्वयं काश्त करेंगे, राजकमल व उसके साथियों को अपना उद्देश्य पूरा होता दिखता है। उन्हें शंकाओं के साथ साथ विश्वास भी है परंतु सवर्ण वर्ग इस बार भी नशाखोर दलितों के दम पर जमीन अपने पक्ष में छुड़वा लेते हैं। इस पर ‘गांव में आरक्षित कृषि भूमि बचाओ संघर्ष समिति’ संवैधानिक तरीके से प्रतिक्रिया करते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन का आयोजन करती है और उपायुक्त को ज्ञापन सौंपती है। फैसला दलितों के पक्ष में होता है परंतु अभी संघर्ष अधूरा है क्योंकि जब तक जमीन पर स्वयं दलितों का स्वामित्व नही हों जाता, यह संघर्ष जारी है।


लेखक का उद्देश्य केवल पाड़ला गांव के अनुसूचित जाति के लोगों तक सीमित नहीं है। वे इस मुहिम को गांव पाड़ला के माध्यम से पूरे प्रदेश के गांव गांव तक ले जाना चाहते हैं। इस विषय में व्यापक जन-जागरण आंदोलन की आवश्यकता है तभी वे इस कहानी के में दलित राजनेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों व युवाओं को आह्वान करते हैं क्योंकि यह आंदोलन एक बडी ताकत की मांग करता है और इस आंदोलन में दलित समुदाय के साथ-साथ उन वर्गों को भी सामने आना चाहिए जो सामाजिक व आर्थिक समानता व शोषित, पीडित व सर्वहारा वर्ग के उत्थान की बात करते हैं। इस प्रकार यह कहानी न केवल अपने कथानक के स्तर पर बडी है अपितु अपने उद्देश्य के संदर्भ में भी बडी है। दलित वर्ग की एक बुनियादी समस्या को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में उठाने में यह कहानी सफल रही है।


कहानी का शीर्षक प्रासंगिक तथा सार्थक है। यह सत्याग्रह का नारा है, संगठन का संदेश है, क्रांति की दस्तक है और अपने अधिकारों को पाने की जागृति का बिगुल भी। कहानी का अंत पाठकों के समक्ष करने के कुछ कार्य छोड़ जाता है न कि वह पाठकों को निष्क्रिय बैठने की अनुमति देता है असल आंदोलन तो अब शुरु होना है क्योंकि समस्या को चिन्ह्ति कर लिया गया है, उसका समाधान अभी बाकी है।

कृष्ण कुमार अग्रवाल, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

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