Friday 12 August 2011

आधुनिक समाज के स्याह पक्ष को उभारती कहानियां


पंखुरी सिन्हा की कहानियों को बहुत कुछ कहने की कहानियां कहा जा सकता है। निः संदेह पंखुरी का पहला कहानी संग्रह ‘कोई भी दिन’ आधुनिक जीवन की कई ज्वलंत समस्याओं की पड़ताल करता है। पंखुरी की कहानियों में एक तरफ जहां परंपराओं के विघटन के दृश्य स्वाभाविक रूप में आये हैं, वहीं सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक विसंगतियों व विद्रूपताओं पर भी वे सार्थक बहस के कुछ विषय अपने प्रबुद्ध पाठक वर्ग के सम्मुख रख छोड़ती हैं। आधुनिकता व परंपरा का वैषम्य, पत्रकारिता में गिरता मूल्यों का स्तर, रंगभेद व नस्लभेद, परतंत्रता व स्वतंत्रता की राजनीतिक समानताओं का जिक्र, राजनीति के भ्रष्ट आचरण से जुड़े ज्वलंत प्रश्न, आस्था व अनास्था के प्रश्न, अन्तर्जातीय विवाह, स्त्री जीवन की व्यथा कथा, गांव से जुड़ी यादें आदि जीवन के लगभग सभी रंग-बदरंग इस कहानी संग्रह में अपने तटस्थ व निष्पक्ष रूप में अभिव्यक्त हुए हैं।
 
आधुनिकता व भौतिकता की अंधी-आंधी गांवांे तक पहुंच चुकी है और उसने गांव के निश्छल व सौम्य वातावरण में भी जहर घोल दिया है। ‘तालाब कहो या पोखर’ कहानी गांवों के शहरों में तब्दील होने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई समस्याओं को दर्शाती है। गांवों को षहरों में तब्दील करने के हमारे उतावलेपन ने हमें मुसीबत में डाल दिया है। गांव के तालाब को भरकर घर बना दिए गए, जिसके कारण गांव में बाढ़ आ गई। ‘ये घर तालाब को भरकर बने हैं। जो पानी पहले तालाब में लुढ़क जाता था वह अब घरों के अन्दर फैल रहा है। जमीन आखिर कितना पानी सोख सकती है! और खाली जमीन भी कितनी बची है?....’’ ( पृ025) पंक्तियां आधुनिक सभ्यता की उस विड़म्बना को दर्शाती है जिसमें कि मानव प्रकृति का अंधाधुंध शोषण कर रहा है और प्रकृति से ऐसी छेड़छाड का नतीजा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भुगत रहा है।

‘कहानी का सच’ शीर्षक कहानी पत्रकारिता जगत के रहस्यों के सच को उजागर करती है। छोटे से कथानक में सिमटी यह कहानी बेहद आवश्यक विषय को उठाने में सफल रही है। टीआरपी की होड़ ने विकास पत्रकारिता का दमन कर दिया है। आज न्यूज वैल्यू के मायने बदल गए हैं। ‘‘देखो नीरज, आयुर्वेद, हकीमी इन सबकी बुरी हालत हो रही है। पर ये खबर नहीं है।... मान लो, अगर यह इमारत ढह जाए और दो बच्चे मर जाएं, तो वो खबर है।’’(पृ035) पंक्तियां पत्रकारिता के असल चेहरे का परिचय है। सिनेमा की तरह ही पत्रकारिता जगत भी कहानी की मांग यानि चैनल की दर्शक संख्या व टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

 
‘बहुत साल बाद’ शीर्षक कहानी स्वतंत्रतापूर्व व स्वातंत्र्योत्तर भारत की परिस्थितियों के तुलनात्मक विश्लेषण की कहानी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी आम आदमी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। रिश्वतखोरी व भ्रष्टाचार, रंगभेद व नस्लभेद ज्यों के त्यों बने हुए हैं। कहानी में एक स्वतंत्रता सेनानी को स्वयं को स्वतंत्रता सेनानी सिद्ध करने के लिए इतनी दौड़-धूप करनी पड़ती है कि अन्ततः हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो जाती है। इसे स्वतंत्र व संप्रभु भारत के मुॅंह पर करारा तमाचा नहीं तो और क्या कहा जाए? ‘‘बेघर लोग जो पहले जॉर्ज पंचम की मूर्ति के नीचे सोते थे, अब जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति के नीचे सोया करेंगे। उन्हें क्या फर्क पड़ता है मूर्ति किसकी है।’( पृ039) पंक्तियां आजादी के बाद गरीबों की स्थिति को चित्रित करती है। पूरी की पूरी कहानी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वे दृश्य प्रस्तुत करती है जो वस्तुतः पराधीन भारत के जैसे ही हैं।


‘एक नास्तिक की आस्था’ कहानी में एक अध्यापिका जो धर्म को श्रद्धा व आस्था का विषय मानकर धार्मिक दिखावे व आड़म्बर का विरोध करती है, उसे स्कूल प्रशासन धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों के हनन का अपराधी घोषित कर देता है। ‘‘नास्तिक होना अनुषासनहीन भक्ति से अधिक मंगलमय है।’’( पृ075) मालती जी के विचार धर्म के सही-सही स्वरूप को व्याख्यायित करते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी, जिसे सरस्वती वंदना भी ठीक से याद नहीं है, उनके इन विचारों की अनदेखी करती हुई धार्मिक आयोजनों को मनोरंजन व दिखावे का अवसर बना देती है। कहानी में कबीर व निराला जैसे क्रान्तिकारी व प्रगतिवादी कवियों के उद्धरण कहानी की प्रभावोत्पादकता में अभिवृद्धि तो करते ही हैं साथ ही कहानी जिस विषय को प्रमुखता से उठाती है, उस संदर्भ में भी प्रस्तुत उद्धरण प्रासंगिक हैं।
‘सान्त्वना’ कहानी अन्तर्जातीय व अन्तर्धामिक विवाह के प्रति परंपरागत समाज की धारणा व उसमें बदलाव की कहानी है। ‘अपने पराये’ में विदेशों में कार्यरत भारतीय युवाओं का संवाद है, जो दिखलाता है कि नस्लभेद केवल विदेशों में ही नहीं अपितु भारत में ही भारतीयों के साथ भी होता है। ‘प्रदूषण’ शहरी कामकाजी महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित करती है। कहानी अंग्रेजी शब्द ‘कजिन’ के निहितार्थों को समझाते हुए आधुनिक युग में रिष्ते-नातों के खोखले व भद्देपन का भी पर्दाफास करती है।

‘अकेला पर्यटन और अकेली पूजा’ कहानी में विदेशों में बसे भारतीय युवकों के दोगले चरित्र का चित्रण किया गया है। साथ ही कहानी आज के संबंधों में दिखावेपन को भी दर्शाती है। ‘‘विकसित होने का यह मतलब थोडे ही हुआ कि आदमी मृतप्राय हो जाए। न जोर से बोले न जोर से गाए, न बजाये।’’( पृ0105) कहानी विकसित होती मानव सभ्यता से लुप्त होते जा रहे जीवन मूल्यों के साथ-साथ यह भी बयान करती है कि ‘‘यहां तो ऐसी चुप हर समय लगी रहती है कि लगता है कि आदमी श्मशान में रह रहा हो।’’( पृ0105) ‘बेलगाम रेस’ में नारी की पीड़ा व पुरुष के अत्याचारों का लेखा-जोखा है। ‘आवाजें’ अपने षहर व मां से जुड़ी यादों की भावात्मक कहानी है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कोई भी दिन’ तर्कहीन अंधविश्वास पर चोट करती है।
 
इस प्रकार पंखुरी सिन्हा का यह कहानी संग्रह कई मायनों में महत्वपूर्ण बन पड़ा है। यहां भाषा का मिजाज बौद्धिक है, कहन का अंदाज निराला है। संग्रह आधुनिकता के चिकने चेहरे पर पुते स्याह दब्बों को उकेरता है वहीं भारत के तथाकथित लोकतंत्र व गणतंत्र की भी खबर लेता है। कहानियां ज्यादा कहने की ललक व वैचारिकता के बोझ में बोझिल तो अवष्य हैं परंतु उनमें निहित संदेष महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।

कृष्ण कुमार अग्रवाल, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
मो0 09802525111
 
कोई भी दिन: पंखुरी सिन्हा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2006, मूल्य- 50 रुपये,

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