Wednesday 16 November 2011

हम सबका घर तथा अन्य कहानियाँ (बाल साहित्य)


आज सिरहाने

रचनाकार
नरेन्द्र कोहली
*
प्रकाशक
 हिंद पाकेट बुक्स
दिल्ली
*
पृष्ठ - १३६
*
मूल्य : ६.९५
(कूरियर से)
*
प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में
 
बच्चे हमारी अमूल्य संपत्ति है, यह लुट जाएगी यदि इसे संस्कार नहीं दिए जाएँगे। बाल्यावस्था जीवन की नींव होती है। इस नाजुक समय में यदि सही मार्गदर्शन व अच्छे संस्कार बच्चों को दिए जाएँ तो वे जीवन में सफलता प्राप्त कर आदर्श नागरिकबन सकेंगे अन्यथा गलत कार्यों में प्रवृत्त हो देश की प्रगति और विकास में अवरोधक ही बनेंगे।

वरिष्ठ कथाकार नरेन्द्र कोहली समकालीन कथा साहित्य में एक लोकप्रिय कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। कोहली जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में महत्वपूर्ण लेखन किया है। उनके राम कथा, कृष्ण कथा, महाभारत कथा तथा विवेकानंद के जीवन पर आधारित उपन्यासों की शृंखलाओं ने हिन्दी साहित्य को समृद्धि प्रदान की। उनकी रचनाऔं में निहित नैतिक आदर्शों तथा जीवन-मूल्यों ने वर्तमान संकटग्रस्त सदी के मार्गनिर्देशन में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। नरेन्द्र कोहली बाल-साहित्य में भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। बच्चों तथा किशोरों को समझदार तथा विवेकशील ब
नाने की दिशा में उनकी रचनाओं की सार्थक भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।

कोहली जी के कहानी संग्रह ‘हम सबका घर तथा अन्य कहानियाँ’ में संकलित कहानियाँ इस नाते प्रशंसनीय एवं सराहनीय है कि वे बाल तथा किशोरों के चरित्र-निर्माण तथा सही आदतों के विकास में प्रभावी भूमिका निभाती हैं। संग्रह में संकलित सभी कहानियाँ बाल तथा किशोर पात्रों को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। इन कहानियों में लेखक उपदेश नहीं देता अपितु व्यावहारिक स्तर पर ऐसे कथानक प्रस्तुत करता है जो बच्चों को स्वयं निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करते हैं कि उनके लिए क्या सही है, क्या गल
त।

‘छोटी सुविधा बड़ी असुविधा’ कहानी में पिता द्वारा पुत्र को दी जा रही नसीहतें यह रेखांकित करती हैं कि हम नियमों तथा कानूनों का पालन करके पुलिस व प्रशासन पर अहसान नहीं कर रहे हैं बल्कि यह हमारी अपनी सुरक्षा व हित की बात है। ‘चुनाव का अधिकार’ बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। अक्सर मां-बाप द्वारा बच्चों पर अपनी पसंद-नापसंद व इच्छाएँ थोपी जाती हैं। परंतु इस कहानी में कथाकार यह संदेश संप्रेषित करने में सफल रहा है कि बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए उन्हें निर्णय अर्थात चुनाव का अधिकार दिया जाना बहुत आवश्यक है।
‘ज्योतिषी’ शीर्षक कहानी में शर्मा जी द्वारा निराश मुस्लिम युवक मुहम्मद इस्माइल के प्रति स्नेहपूर्ण तथा सहयोगपूर्ण व्यवहार को दर्शाया गया है। शर्मा जी अपने विनोदी स्वभाव से न केवल मोहम्मद इस्माइल की समस्या को हल करते हैं अपितु अपने सहकर्मी खुशीराम को भी खुशी प्रदान करते हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हम सबका घर’ बच्चों के सामान्य ज्ञान-विज्ञान को बढ़ाती है। पर्यावरण संरक्षण व प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग का सेदश संप्रेषित करती है यहकहानी।

बच्चों को पर्यावरण प्रदूषण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले संकट के प्रति सचेत करने के साथ-साथ प्रकृति की रक्षा के प्रति संकल्पबद्ध होने की प्रेरणा यह कहानी देती है। इस संदर्भ में स्वयं कोहली जी लिखते हैं-‘पानी के गंदे हो जाने की घटना हमारे अपने घर में घटी। उसें मेरे बच्चों ने इतने निकट से देखा कि नदियों के प्रदूषित होने की प्रक्रिया को
समझने में उन्हें कठिनाई नहीं है। मैं यह मानता हूं कि व्यापक प्रश्न भी सामान्य जीवन की छोटी घटनाओं से कुछ बहुत पृथक नहीं होते। बच्चों और व्यस्कों की सौंदर्य-चेतना में भी बहुत भेद नहीं होता।’ इस प्रकार खेल-खेल में बच्चों को जटिल विषयों के प्रति जागरुक और सावधान करने में नरेन्द्र कोहली जी सफल रहे हैं।

इन कहानियों में उपदेश नहीं है, परंतु उद्देश्य अवश्य है। कोहली जी बाल-मनोविज्ञान के पारखी हैं। इन कहानियों में अनेक प्रसंग ऐसे आते हैं जहां बाल सुलभ जिज्ञासाएँ पैदा होती हैं और उनके स्वाभाविक उत्तर कथाकार द्वारा प्रायोगिक आधार पर दिए जाते हैं। विज्ञान-तकनीक तथा सूचना-संचार की इस सदी में तर्क के आधार पर ही चीजों को स्वीकारा और नकारा जा रहा है। ऐसे में कथाकार उपदेशक न बनकर वैज्ञानिक बनकर बच्चों को प्रैक्टिकल होकर प्रेरित करता है। संग्रह की सभी कहानियों में लेखक का यही प्रयास रहा है जो स्तुत्य भी है और इन कहानियों को विशिष्टता भी देता है।

कथ्य, शिल्प और भाषा के स्तर पर भी लेखक ने बड़ी समझदारी से काम लिया है। ये कहानियाँ क्योंकि बाल तथा किशोर वर्ग को संबोधित करके लिखी गई हैं तो स्वाभाविक रूप से इन कहानियों में लेखक द्वारा प्रयुक्त भाषा सरल तथा सहज है, जो किशोरों के लिए सर्वथा उपयुक्त है। संवाद शैली बच्चों तथा किशोरों के लिए सरस तथा मनोरंजक है। इन कहानियों में लेखक की अपनी देखी-भाली घटनाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। ये कहानियाँ हमारे जीवन तथा परिवेश से जुड़ाव रखती हैं और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाली छोटी-छोटी सीखें हमें देती हैं।
 
- कृष्ण कुमार अग्रवाल१४ नवंबर २०११

Friday 11 November 2011

आदर्शों की स्थापना के प्रति प्रतिबद्धता




साहित्य समाज का दर्पण है। युगीन यथार्थ का लेखा-जोखा साहित्य में प्रतिबिंबित होता है। साहित्य में चित्रित यथार्थ पाठकों में युगीन विसंगतियों व विद्रूपताओं के प्रति घृणा का भाव जगाकर इनके निदान व समाधान को उकसाता है। परंतु वर्तमान में साहित्य में यथार्थवाद के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह नग्नता व भौंडेपन की सीमाओं का हनन करता है और साहित्य के असल प्रयोजन की अनदेखी करता है। यह सही है कि साहित्य के माध्यम से विसंगतियां और विद्रूपताएं उजागर होनी चाहिए परंतु साहित्य पर युग को दिशा देने का गुरुत्तर उत्तरदायित्व भी होता है। इस प्रकार साहित्य न केवल समाज का दर्पण होता है बल्कि समाज का दीपक भी होता है।


पुस्तक- ‘कोई है’ (कहानी संग्रह), लेखक – रूपसिंह राठौड़, प्रकाशक-ग्रंथ विकास, जयपुर, 2009 मूल्य-150 रुपये, पृष्ठ संख्या-127
रूपसिंह राठौड़ के प्रथम कहानी संग्रह ‘कोई है’ में संकलित कहानियां इसी मत को दृष्टिगत कर लिखी गई कहानियां हैं। लेखक युगीन समस्याओं व विसंगतियों के प्रति चिंतित है और अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रयासरत है। वह आधुनिक समाज के यथार्थ को पाठकों के सामने नंगा करता है परंतु यह पाठकों में निराशा, अवसाद व बेचैनी पैदा नहीं करता अपितु उन्हें जागरूक होकर इनके निराकरण की दिशा में अग्रसर करता है। वस्तुतः लेखक का पूरा बल नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने पर है।

इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों के पात्र आदर्शों की स्थापना के प्रति प्रतिबद्ध हैं। वे यथार्थ से आहत तो होते हैं परंतु पराजित नहीं। वे प्रतिकूल परिस्थितयों में भी अपनी जिजीविषा को कायम रखते हैं और समय के विद्रूप व विसंगत से टकराकर सुपथ पर अग्रसर होने को प्रेरित करते हैं। हरकली एक साहसी महिला है जो अपने शराबी पति की मृत्योपरांत पुनर्विवाह से इंकार कर देती है और अपना संपूर्ण जीवन व संपत्ति जरुरतमंद लोगों के लिए समर्पित कर देती है। ‘दादू दे उऋण भया’ का शैलेश अपने मित्र का कर्ज चुकाना चाहता है परंतु लाख कोशिशों के बावजूद भी जब उसे अपने मित्र का पता-ठिकाना नहीं मिलता तो वह कर्जराशि को अपने मित्र के नाम से एक धर्मार्थ खुल रहे औषधालय के निर्माणार्थ दान कर देता है। ‘इकबाल अमर है’ का इकबाल एक ईमानदार व कर्तव्य कर्मचारी है। वह कार्यालय में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निस्वार्थ भाव से करता है वह रिश्वतखोरी के खिलाफ है। ‘कीच का कमल’ के अक्षय राजावत एक बडे अधिकारी हैं। वे एक लावारिस बच्चे को अपनाते हैं। उसका पालन पोषण कर उसे कलेक्टर बनाते हैं। इन कहानियों में अनेक ऐसे पात्रों से परिचय होता है जो युगीन सरोकारों से गहरा जुडाव रखते हैं और अपने तईं भरपूर प्रयत्न करते हैं कि सामाजिक परिवेश में सुधार हों।

संग्रह में संकलित कहानियों में आधुनिक युग की मूल्यविहीन संस्कृति व स्पंदनहीन हो चुके संबंधों को भी परत-दर-परत उघाड़ा गया है। राठौड जी न केवल वर्तमान सामाजिक परिवेश में घुस आये प्रदूषण को बयान करते हैं अपितु राजनीतिक स्वार्थांधता, संकुचित सांप्रदायिकता व सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को भी चित्रित करते हैं। ‘पुश्तैनी नौकर’ शीर्षक कहानी में युग की विड़म्बना का पर्दाफास हुआ है। धनजी एक विद्यालय में प्रधानाध्यापक है। कार्यालय में आये अपने पिता जी का परिचय वह अपने अधीनस्थों से ‘पुश्तैनी घरेलू नौकर’ की संज्ञा देकर कराता है। नयी पीढी की हीनभावना इस कहानी में व्यक्त हुई है। ‘नत्थू तेरे खरे’ चिकित्सा के नाम पर फर्जी नीम हकीमों द्वारा भोले-भाले रोगियों के शोषण की कहानी है। ‘चुटिया न होती’ अपने संक्षिप्त कथ्य में सांप्रदायिकता पर गहरी चोट करती है। ‘आदर्श की अर्थी’ में पारिवारिक विघटन को दर्शाया गया है। ‘कारगिल का गजराज’ शहीद सैनिकों के परिवारों के साथ सरकार के बर्ताव को अभिव्यक्त करती है। मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के परिवारों के साथ अन्याय क्षोभ पैदा करता है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कोई है’ युगीन अपसंस्कृति का चित्र पेश करती है। ससुर की हरकतों से परेशान नवविवाहिता जिसका पति परदेश में कार्यरत है, आत्महत्या कर लेती है। और जब चन्द्रेश को अपनी पत्नी की मृत्यु का सच मालूम होता है तो वह अर्धविक्षिप्त अवस्था में जीवन बसर करने पर मजबूर हो जाता है।

कहानियां आकारगत संक्षिप्त होते हुए अपने कथ्यगत सरोकारों में विराट और उदात्त हैं। इन कहानियों में राजस्थानी भाषा व संस्कृति की महक है। राजस्थानी कहावतों व लोकगीतों का कहानियों में प्रयोग हुआ है। यह भाषा पाठकों की अपनी भाषा है। कहीं कोई बनावट या बुनावट प्रतीत नहीं होती। राठौड़ जी की भाषा सुगम्य होने के साथ-साथ साहित्यिक मापदंडों पर भी खरी उतरती है। संग्रह में संकलित कुछ कहानियां अपरिपक्व तथा कमजोर हैं। कथ्य व शिल्प दोनों ही दृष्टियों से ये कहानियां अस्वाभाविक लगती हैं। कुछ कहानियों में लेखक की उपदेशात्मकता व वैचारिकता कथानक के प्रवाह में बाधा पैदा करती है। ‘बंदरिया वाली प्रेयसी’ तथा ‘बाबा गंगा, कौन ले पंगा’ जैसी कहानियां इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं।

आदर्शों की प्रतिस्थापना, जीवन-मूल्यों का संरक्षण-संवर्द्धन, सभ्यता और संस्कृति की रक्षा, भाईचारे की भावना, मानवीय रिश्तों पर बल तथा नयी पीढी को सकारात्मक दिशा में बढ़ने का संदेश इन कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है। वैसे भी एक आदर्श शिक्षक से इन्हीं विचारों की अपेक्षा की जाती है। राठौड जी एक सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। उनकी कहानियों में आदर्शों के प्रति उनका आग्रह स्वाभाविक भी है और अनुकरणीय भी। यह उनका प्रथम कहानी संग्रह है जो अपनी कुछ कमजोरियों के बावजूद ये कहानियां कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं।

एक संवेदनशील रचनाकार की चिंताएं


सुशांत सुप्रिय हमारे समय के उन गिने-चुने लेखकों में से एक हैं जो महानगरीय वातावरण में रहने के बावजूद भी अपनी संवेदना तथा भावना को बचाए रखने में सफल रहें हैं। उनकी कहानियों में इस तथ्य को भली-भांति परखा जा सकता है। पेशे से सुशांत जिस स्थान पर बैठे हैं वहां से एक समृद्ध भारत और निर्धन भारत के बीच के फर्क को साफ-साफ देखा जा सकता है। लोकसभा जैसी संस्था में कार्यरत सुशांत का कहानीकार जब जन-गण-मन की वकालत करता और भ्रष्ट सरकारी तंत्र को नंगा करके उसके घिनौने चरित्र को पाठकों के समक्ष लाता है तो वह प्रामाणिक होने के साथ-साथ उम्दा रचनाओं को जन्म देता है।
सुशांत सुप्रिय के सद्य प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘हत्यारे’ में 35 कहानियां संकलित हैं। ये कहानियां समकालीन सदी की ज्वलंत समस्याओं से न केवल मुठभेड करती हैं अपितु उनको कुचल कर आदर्श भी स्थापित करती हैं। लगभग सभी कहानियों में लेखक परंपरागत मूल्यों और आदर्शों की पुनर्स्थापना के लिए प्रयासरत है। इसे एक युवा लेखक का विवेक कहना चाहिए कि वह एक ऐसे समय में ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की बात करता है जब यथार्थवाद और अतियथार्थवाद का शोर हमारे यहां प्रमुखता में है। लीक से हटकर लिखी इन कहानियों में किसी प्रकार का छद्म देखने को नहीं मिलता बल्कि एक संवेदनशील रचनाकार की चिंताएं इनमें व्यक्त हुई हैं। स्वयं लेखक अपनी बात में इसे स्पष्ट करता है। सुशांत के लिए लेखन एक तडप है, धुन है, जुनून है। कुछ सामाजिक यथार्थ है। कुछ कल्पना की उडान है। कुछ व्यक्तिगत अनुभव हैं। कुछ आत्मीय सामाजिक सरोकार हैं जिन्हें लेखक द्वारा इन कहानियों में संजोया गया है।
‘हत्यारे’ कहानी समाज में दहशत और भय के माहौल को व्यक्त करती है। ‘बँटवारा’ में सांप्रदायिक उन्माद की भेंट चढी एक किन्नर की लाश के माध्यम से दंगाईयों के चरित्र का नंगापन उजागर हुआ है। मानवीय संवेदना के स्याह-सफेद पहलुओं का रेखांकन ‘अपना शहर’, ‘राम नाम सत्य है’, ‘प्यार’, ‘एहसानमंद’ आदि कहानियों में बडी खूबसूरती से हुआ है। शिक्षा जगत की विकृतियां ‘मुलाकात’ कहानी में अभिव्यक्त हुई हैं। ‘मिसफिट’ में व्यवस्था के प्रति विद्रोह प्रकट हुआ है। ‘गलती’ तथा ‘प्रवासी कौवे की कथा’ कहानी नस्लभेद की समस्या को सामने लाती है।
सुशांत की इन कहानियों में जो यूटोपिया उभर कर हमारे समक्ष उपस्थित हुआ है, वह कपोल कल्पित न होकर समय और समाज के लिए आदर्शों और मूल्यों की प्रतिस्थापना का ईमानदार प्रयास है। लेखक पीढीगत वैचारिक अंतराल को अभिव्यक्त करते हुए इस युग की मूल्यहीनता को परंपरागत जीवनादर्शों के सामने घुटने टेकते हुए देखना चाहता है।
सुशांत की कहानियों का आकार संक्षिप्त है। कुछ आलोचकों का मत है कि उन्हें लंबी कहानियां भी लिखनी चाहिए। परंतु मेरा मत है कि छोटे कथ्य में महत्वपूर्ण संदेश बयान करने का जो कौशल सुशांत के पास है, वह उनकी विशिष्टता है। ‘बँटवारा’, ‘गलती’, ‘प्रवासी कौवे की कथा’ आदि कहानियां अपने छोटे कथ्य में बडी बात कहने वाली कहानियां हैं। इन कहानियों में व्यंग्य और कटाक्ष का अंदाज तीखा, पैना और प्रभावी है। भाषायी संस्कार और शैल्पिक तहजीब के कथाकार सुशांत एक संभावनाशील रचनाकार के रूप में बधाई के पात्र हैं, जिनसे भविष्य में कुछ और अच्छी कहानियों की उम्मीद की जा सकती है।
लेखक- सुशांत सुप्रिय
पुस्तक- हत्यारे
प्रकाशक- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 337, चौडा रास्ता, जयपुर-302 003
मूल्य- 225 रुपये
पृष्ठ संख्या- 132
  कृष्ण कुमार अग्रवाल