Friday 11 November 2011

आदर्शों की स्थापना के प्रति प्रतिबद्धता




साहित्य समाज का दर्पण है। युगीन यथार्थ का लेखा-जोखा साहित्य में प्रतिबिंबित होता है। साहित्य में चित्रित यथार्थ पाठकों में युगीन विसंगतियों व विद्रूपताओं के प्रति घृणा का भाव जगाकर इनके निदान व समाधान को उकसाता है। परंतु वर्तमान में साहित्य में यथार्थवाद के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह नग्नता व भौंडेपन की सीमाओं का हनन करता है और साहित्य के असल प्रयोजन की अनदेखी करता है। यह सही है कि साहित्य के माध्यम से विसंगतियां और विद्रूपताएं उजागर होनी चाहिए परंतु साहित्य पर युग को दिशा देने का गुरुत्तर उत्तरदायित्व भी होता है। इस प्रकार साहित्य न केवल समाज का दर्पण होता है बल्कि समाज का दीपक भी होता है।


पुस्तक- ‘कोई है’ (कहानी संग्रह), लेखक – रूपसिंह राठौड़, प्रकाशक-ग्रंथ विकास, जयपुर, 2009 मूल्य-150 रुपये, पृष्ठ संख्या-127
रूपसिंह राठौड़ के प्रथम कहानी संग्रह ‘कोई है’ में संकलित कहानियां इसी मत को दृष्टिगत कर लिखी गई कहानियां हैं। लेखक युगीन समस्याओं व विसंगतियों के प्रति चिंतित है और अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रयासरत है। वह आधुनिक समाज के यथार्थ को पाठकों के सामने नंगा करता है परंतु यह पाठकों में निराशा, अवसाद व बेचैनी पैदा नहीं करता अपितु उन्हें जागरूक होकर इनके निराकरण की दिशा में अग्रसर करता है। वस्तुतः लेखक का पूरा बल नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने पर है।

इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों के पात्र आदर्शों की स्थापना के प्रति प्रतिबद्ध हैं। वे यथार्थ से आहत तो होते हैं परंतु पराजित नहीं। वे प्रतिकूल परिस्थितयों में भी अपनी जिजीविषा को कायम रखते हैं और समय के विद्रूप व विसंगत से टकराकर सुपथ पर अग्रसर होने को प्रेरित करते हैं। हरकली एक साहसी महिला है जो अपने शराबी पति की मृत्योपरांत पुनर्विवाह से इंकार कर देती है और अपना संपूर्ण जीवन व संपत्ति जरुरतमंद लोगों के लिए समर्पित कर देती है। ‘दादू दे उऋण भया’ का शैलेश अपने मित्र का कर्ज चुकाना चाहता है परंतु लाख कोशिशों के बावजूद भी जब उसे अपने मित्र का पता-ठिकाना नहीं मिलता तो वह कर्जराशि को अपने मित्र के नाम से एक धर्मार्थ खुल रहे औषधालय के निर्माणार्थ दान कर देता है। ‘इकबाल अमर है’ का इकबाल एक ईमानदार व कर्तव्य कर्मचारी है। वह कार्यालय में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निस्वार्थ भाव से करता है वह रिश्वतखोरी के खिलाफ है। ‘कीच का कमल’ के अक्षय राजावत एक बडे अधिकारी हैं। वे एक लावारिस बच्चे को अपनाते हैं। उसका पालन पोषण कर उसे कलेक्टर बनाते हैं। इन कहानियों में अनेक ऐसे पात्रों से परिचय होता है जो युगीन सरोकारों से गहरा जुडाव रखते हैं और अपने तईं भरपूर प्रयत्न करते हैं कि सामाजिक परिवेश में सुधार हों।

संग्रह में संकलित कहानियों में आधुनिक युग की मूल्यविहीन संस्कृति व स्पंदनहीन हो चुके संबंधों को भी परत-दर-परत उघाड़ा गया है। राठौड जी न केवल वर्तमान सामाजिक परिवेश में घुस आये प्रदूषण को बयान करते हैं अपितु राजनीतिक स्वार्थांधता, संकुचित सांप्रदायिकता व सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को भी चित्रित करते हैं। ‘पुश्तैनी नौकर’ शीर्षक कहानी में युग की विड़म्बना का पर्दाफास हुआ है। धनजी एक विद्यालय में प्रधानाध्यापक है। कार्यालय में आये अपने पिता जी का परिचय वह अपने अधीनस्थों से ‘पुश्तैनी घरेलू नौकर’ की संज्ञा देकर कराता है। नयी पीढी की हीनभावना इस कहानी में व्यक्त हुई है। ‘नत्थू तेरे खरे’ चिकित्सा के नाम पर फर्जी नीम हकीमों द्वारा भोले-भाले रोगियों के शोषण की कहानी है। ‘चुटिया न होती’ अपने संक्षिप्त कथ्य में सांप्रदायिकता पर गहरी चोट करती है। ‘आदर्श की अर्थी’ में पारिवारिक विघटन को दर्शाया गया है। ‘कारगिल का गजराज’ शहीद सैनिकों के परिवारों के साथ सरकार के बर्ताव को अभिव्यक्त करती है। मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के परिवारों के साथ अन्याय क्षोभ पैदा करता है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कोई है’ युगीन अपसंस्कृति का चित्र पेश करती है। ससुर की हरकतों से परेशान नवविवाहिता जिसका पति परदेश में कार्यरत है, आत्महत्या कर लेती है। और जब चन्द्रेश को अपनी पत्नी की मृत्यु का सच मालूम होता है तो वह अर्धविक्षिप्त अवस्था में जीवन बसर करने पर मजबूर हो जाता है।

कहानियां आकारगत संक्षिप्त होते हुए अपने कथ्यगत सरोकारों में विराट और उदात्त हैं। इन कहानियों में राजस्थानी भाषा व संस्कृति की महक है। राजस्थानी कहावतों व लोकगीतों का कहानियों में प्रयोग हुआ है। यह भाषा पाठकों की अपनी भाषा है। कहीं कोई बनावट या बुनावट प्रतीत नहीं होती। राठौड़ जी की भाषा सुगम्य होने के साथ-साथ साहित्यिक मापदंडों पर भी खरी उतरती है। संग्रह में संकलित कुछ कहानियां अपरिपक्व तथा कमजोर हैं। कथ्य व शिल्प दोनों ही दृष्टियों से ये कहानियां अस्वाभाविक लगती हैं। कुछ कहानियों में लेखक की उपदेशात्मकता व वैचारिकता कथानक के प्रवाह में बाधा पैदा करती है। ‘बंदरिया वाली प्रेयसी’ तथा ‘बाबा गंगा, कौन ले पंगा’ जैसी कहानियां इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं।

आदर्शों की प्रतिस्थापना, जीवन-मूल्यों का संरक्षण-संवर्द्धन, सभ्यता और संस्कृति की रक्षा, भाईचारे की भावना, मानवीय रिश्तों पर बल तथा नयी पीढी को सकारात्मक दिशा में बढ़ने का संदेश इन कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है। वैसे भी एक आदर्श शिक्षक से इन्हीं विचारों की अपेक्षा की जाती है। राठौड जी एक सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। उनकी कहानियों में आदर्शों के प्रति उनका आग्रह स्वाभाविक भी है और अनुकरणीय भी। यह उनका प्रथम कहानी संग्रह है जो अपनी कुछ कमजोरियों के बावजूद ये कहानियां कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं।

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