Friday 19 August 2011

भावुक हृदय को अभिव्यक्त करती कहानियां

राजस्थान विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की सेवानिवृत्त अध्यक्षा श्रीमती सुरेखा सिन्हा साहित्य और संगीत के क्षेत्र में समानांतर रूप से सक्रिय रही हैं। श्रीमती सुरेखा जी का व्यक्तित्व और कृतित्व एक-दूसरे का पूरक है। उनका संपूर्ण जीवन साहित्य और संगीत की सेवा में लगा और अन्ततः जीवन के बाद भी उनका देहदान का संकल्प उनके प्रति श्रद्धानवत करता है। साहित्य और संगीत के साथ-साथ आध्यात्म, दर्शन और मनोविज्ञान आदि विषयों पर भी लेखिका का अधिकार है।

उनके सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘उस धूप की छांह’ की कहानियांे के कथानक उनके जीवनानुभवों का लेखा-जोखा है। लगभग सभी कहानियों में लेखिका अपने सगे-संबंधियों, मित्र-परिचितों के साथ बिताये लम्हों को स्मरण करते हुए कहानी लिखती हैं। इसलिए इन कहानियों को पढ़ते हुए एक तरफ जहां महादेवी वर्मा के संस्मरणों की याद ताजा हो जाती है, वहीं आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई ये कहानियां पाठक को जीवन के प्रति एक नई दृष्टि भी देती हैं। डॉ. सुरेखा जी की कुछ कहानियों में उनका पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम भी झलकता है। महादेवी वर्मा की तरह उनकी कहानियों में प्रयुक्त पशु पात्रों के प्रति लेखिका की संवेदना तथा अपनापन उनकी कहानियों को अलग पहचान देता है।

वस्तुतः इन कहानियों के सभी पात्र जिंदा हैं और डॉ. सुरेखा के परिवार, पड़ोस तथा शहर में उन्हें देखा जा सकता है, उनसे मिला जा सकता है। इन कहानियों की यह विशिष्टता भाव पक्ष को मजबूती प्रदान करती है तो शिल्प को कमजोर भी बनाती है। क्योंकि कहीं-कहीं लेखिका अत्यंत भावुक होकर एक घटना के बाद दूसरी घटना का सिलसिलेवार ब्यौरा-सा देने लगती हैं जहां कहानी का कहानीपन गायब होकर रचना की रोचकता और परिपक्वता को प्रभावित करने लगता है।

डॉ. सिन्हा की कहानियों में वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष चरित्र तथा मानसिकता में आये परिवर्तनों को समझा जा सकता है। उनकी कहानियों में एक तरफ जहां पुरुष चरित्र का घिनौनापन सामने आता है। वहीं कभी-कभी पुरुष अपने परिवार तथा पत्नी के सामने कितना बेबस हो जाता है, यह भी इन कहानियों में चित्रित हुआ है। संग्रह की ‘उलझी जिंदगी’ शीर्षक कहानी में पुरुष का अपनी और पराई स्त्री के प्रति भिन्न दृष्टिकोण प्रकट होता है, जो उसके दोगलेपन को दर्शाता है। चोपड़ा साहब मिसेज बंसल के बोल्ड नेचर तथा सिम्पल हार्टेड़ होने की प्रशंसा करते हैं वहीं अपनी पत्नी के प्रति उनके विचार अलग हैं। दूसरी ओर मिसेज बंसल टेलीविजन में काम करने के आकर्षण में फंसकर घर छोड़कर एक व्यक्ति के साथ भाग जाती है। मिसेज बंसल को घर वापिस लेने गए मिस्टर बंसल को जो जबाव सुनने को मिलते हैं, वे उल्लेखनीय हैं।

मिसेज बंसल कहती हैं-‘यह मेरा पर्सनल मामला है। आपसे मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैं शादी करूं या कुछ और करूं’, ‘मैं ऐसे आदमी से शादी कर रही हूं जो बहुत फ्री और ब्रोड-माइन्डेड हैं। मेरे प्रोग्राम कभी भी कहीं भी होंगे, उनको कोई ऐतराज नहीं होगा।’, ‘आपकी इज्जत और बच्चों के पीछे मैं अपने अरमानों का गला घोंटकर मर जाऊं? आप जा सकते हैं।’ इक्कीसवीं सदी की यह स्त्री न तो अपने पति से कोई अपना कोई संबंध मानती है और न बच्चों से। उसकी नजर में घर-परिवार बंधन है और वह किसी भी कीमत पर अपनी आजादी खोना नहीं चाहती।
 
इसी प्रकार ‘क्या करूं’ की स्त्री, जो डॉक्टर है अपने पति के गंवईपन के कारण अपने सर्किल में शर्मिन्दगी महसूस करती है। उसका स्टेटस जितना हाई होता जाता है, अपने पति के प्रति उसकी हीनता बढ़ती जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि पति, बच्चों को साथ लेकर गांव चला जाता है और डॉक्टर साहिबा अपने बहनोई के साथ रहने लगती हैं। परंतु अन्ततः उसे अपने पति और बेटे की याद आती है, परंतु अब कुछ नहीं हो सकता।
डॉ. सिन्हा की कहानियों में पारिवारिक आदर्शों की स्थापना के प्रति लेखिका का प्रयत्न प्रशंसनीय है। उक्त दोनों कहानियों में स्त्री पात्रों के भटकाव के बावजूद कहानी का अंत आदर्शों को बनाये रखता है। ‘संबंधों के सोपान’ शीर्षक कहानी में सास-बहू संबंध के बीच की जो मधुरता, समझ तथा समर्पण अभिव्यक्त हुआ है, वह वर्तमान टेलीविजन धारावाहिकों में प्रस्तुत सास-बहू संबंध से सर्वथा भिन्न है।

‘उस धूप की छांह’ कहानी कैंसर पीड़ित नायिका के जीवन संघर्ष को व्यक्त करती है। ‘लय के विपरीत’ कहानी जीवन के असली अर्थों को बयान करती है। बेहद छोटे कथानक के माध्यम से लेखिका यह स्पष्ट करने में सफल रही है कि जीवन का असली आनंद उच्छृंखलता में नहीं अपितु सादगी में है। ‘प्रिया’ में पर्दा प्रथा के विरुद्ध एक नारी का संघर्ष तथा उसकी सफलता को दर्ज किया गया है।

‘जीने का अंदाज’ कहानी नारी जीवन की विड़म्बना पर प्रकाश डालती है। कहानी उस अवधारणा पर चोट करती है जिसके अंतर्गत नारी-सशक्तिकरण के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण हथियार बताया जाता है। लेखिका ऐसी अनेक महिलाओं का परिचय अपनी इस कहानी में देती हैं जो ऊंचे पदों पर काम करने के बावजूद भी अपने घरों में शोषण का शिकार हैं। वस्तुतः महिला-सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा हमारी पुरातनपंथी मानसिकता है।

एक तरफ नारी के लिए अनेक सीमाओं तथा मर्यादाओं की बात की जाती हैं, दूसरी ओर पुरुष के प्रति इस प्रकार का कोई नियम-कानून नहीं है। ‘दामिनी’ की दामिनी अपने पति के रुखे व्यवहार से पीड़ित है। एम.ए. पास तथा पीएच.डी. में रजिस्टर्ड दामिनी अपने पति की इग्नोरेंस तथा वाग्वानों की परवाह न करते हुए पूरी लगन से अपना काम करती है और विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद प्राप्त कर लेती है। परंतु पति का शुष्क व्यवहार उसे आज भी सालता है।

 
ल्ेखिका की संवेदनशीलता तथा कोमल-हृदयता को इन कहानियों में कई जगह अनुभव किया जा सकता है। वस्तुतः लेखिका अपने घर-परिवार, पास-पड़ोस तथा अपने परिवेश से गहराई से जुडी हैं। उनका अपने परिवार, अपनी सहेलियों तथा अपने पशु-पक्षियों से लगाव तथा जुड़ाव इन कहानियों की घटनाओं में अभिव्यक्त होता है। लेखिका अपने घर में निकले सांप को इसी शर्त पर पकड़ने देती हैं कि सपेरा उसे जंगल में छोड़ देगा। सड़क पर घायल अवस्था में मिले तोते की सेवा-सुश्रुषा करती हैं तो अपने घर की पालतू कुतिया ‘जूली’ के लिए वे एक पूरी कहानी लिख डालती हैं। 

डॉ. सुरेखा सिन्हा की कहानियां उनके भावुक हृदय की अभिव्यक्तियां हैं। शिल्पगत स्तर पर इन कहानियों में घटनाओं की वर्णनात्मकता कहानी के शिल्प को प्रभावित करते हुए संस्मरण तथा आत्मकथा विधा के ज्यादा निकट है। फिर भी इन कहानियों में जो आदर्श तथा मूल्य रेखांकित हुए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। 

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक का नाम- उस धूप की छांह
लेखिका- डॉ. सुरेखा सिन्हा
प्रकाशक- साहित्यागार
   धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर सं. 2011
मूल्य- 175 रुपये


Tuesday 16 August 2011

बदलते जीवन में उपजी विसंगतियों का रेखांकन


हिंदी साहित्य को राजस्थान के योगदान की जब-जब चर्चा होती है तो यादवेन्द्र  शर्मा ‘चन्द्र’ का नाम उल्लेख्य रचनाकारों में गिना जाता है। कुछ माह पूर्व उनका देहांत हो गया। यादवेन्द्र जी लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में रचनाशील रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ अन्य कई विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित चन्द्र जी ने जहां हिंदी साहित्य को अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं देकर समृद्ध किया वहीं राजस्थानी भाषा में भी अनेक कृतियों की रचना की। उनकी ताजा कहानियों का संग्रह ‘वाह किन्नी, वाह’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

यादवेन्द्र जी के लेखनकर्म की यह विशेषता रही है कि उनकी रचनाओं में राजस्थानी परिवेश व संस्कृति का प्रतिबिंब देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं के पात्र अस्वाभाविक न होकर जीवंत होते हैं। दूसरा, उनका कहन इतना सहज होता है, जैसे पाठक अपने आस-पास की ही कोई घटना सुन-पढ़ रहा होता है।

लेखक का उद्देश्य है दुष्ट-से-दुष्ट आदमी के भीतर की अच्छी संवेदनाओं और संघर्ष की तलाश।  ‘तरेडों वाली औरत’ कहानी की नायिका अरण्डी अपनी सौतेली बेटी ममूडी से दुर्व्यवहार करती है, उस पर अत्याचार करती है, वह उसे बेचकर अपने पति की सारी जायदाद का मालिक अपनी संतान को बनाना चाहती है। परंतु अन्ततः उसकी संवेदना जागती है। अपराधबोध से ग्रस्त अरण्डी अपनी मौसी के नापाक इरादों को विफल कर देती है और ममूडी को अपने गले लगाकर अपने पति को सब सच बता देती है।

समय, समाज व हमारी बदली परिस्थितियों का अंकन इन कहानियों में हुआ है। अमानवीयता, अपसंस्कृति और अवमूल्यन के प्रति गहरी चिंता के साथ लेखक पाठक को सकारात्मक मूल्यबोध की ओर बढ़ने को प्रेरित करता है। ‘अस्तित्व का विद्रोह’ कहानी हरदास के माध्यम से संपूर्ण इंसानियत के अस्तित्व के विद्रोह को दर्शाती है। इक्कीसवीं सदी के उत्तर आधुनिक परिवेश में यह मानव जाति की विडम्बना ही कही जानी चाहिए कि आज भी आदमी, आदमी की गुलामी करने को अभिशप्त है। ‘मैं भी आदमी हूं’ वाक्य विकसित मानव सभ्यता पर करारा प्रहार है।

‘स्वर्ण नदी रेत की’ में आधुनिक समाज के रिश्तों का खोखलापन उजागर हुआ है। सवर्ण पुनीता अपने घर-परिवार के विरोध के बावजूद दलित दिगन्त से प्रेम विवाह करती है परंतु दिगन्त उससे दुव्यर्वहार करता है। वह अपनी युवा नौकरानी से शारीरिक संबंध बनाता है और पुनीता को उसके
कार्यों में दखल न देने की धमकी देता है। मां-पिता की अनबन के मध्य अशेष स्वयं को बेहद अकेला महसूस करता है। वह पुनीता के कहने पर भी रूकना नहीं चाहता। अवसादग्रस्त अशेष पुनीता की कोई बात नहीं सुनता। वह कहता है- ‘‘मैं मां-बाप के बीच में अकेला ही रहा हूं। जानता ही नहीं मां की ममता और पिता का स्नेह क्या होता है? मां! मुझे रुपये दो। मैं अपना इरादा नहीं बदलूंगा। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो किसी भी दुर्घटना की तुम जिम्मेवार होगी।’’ (पृ. 60)

‘अम्बिया’ में कन्या भ्रूण हत्या के फलस्वरूप पैदा हुई सामाजिक विसंगतियां चित्रित हुई हैं। अम्बिये को अपना विवाह नामुमकिन लगता है परंतु रंगा ठाकुर तीन हजार रूपये और विवाह के खर्च पर उसका विवाह फागली से करवा देता है। अम्बिया फागली को पूरी इज्जत देता है और उसका पूरा ख्याल रखता है। भाव विह्वल फागली की मां के ये शब्द सामाजिक संरचना के विद्रूप को उघाड़ते हैं- ‘‘सच कहती है कि बेटी के रुपये लेते हुए बड़ा दुख और लाज से सिर झुकता है, पर न लें तो अपने घर के बेटे कैसे दोपाये से चोपाये बनें। पैसा तेरा लिया और तेरे भाई सुखदेव का दे दिया। या फिर छोरी के बदले छोरी दे देते हैं। हम लोगो की यही व्यवस्था है। जबकि कन्या दान धर्म से करना चाहिए, पैसा लेकर नहीं।’’ (पृ. 67)

‘कालकी गोरकी’ शीर्षक कहानी रंग-रूप से भिन्न दो जुडवां बहनों के साहस की कहानी है। ये दोनों बहनें एक शहीद की बेटियां हैं जो गांव में होने वाले प्रत्येक कार्य में अपनी भूमिका रखती हैं। वे गांव में किसी पर भी अन्याय व अत्याचार को सहन नहीं करती। अपने विवाह के समय वर पक्ष की अनुचित मांगों का वे मुखर विरोध करती हैं और विवाह से इंकार कर देती हैं। वे बारात को घर की दहलीज से लौटाना अपसकुन नहीं समझती। ‘‘क्या काली छोरियों के गांव अलग बसते हैं? क्या काली छोरियां कुंवारी ही मरती हैं? इस गांव में अनेक काली लुगाइयां हैं और सब विवाहिता हैं। कान खोल कर सुन लीजिए और आप बारात लेकर वापस चले जाइए। हम ऐसे लड़कों से विवाह नहीं करेंगी जो रंग-रूप की जगह लड़की के गुण नहीं देखते। जाइए, अपना काला मुंह लेकर जाइए।’’ (पृ. 76) ग्रामीण युवतियों का परंपरा के प्रति विद्रोह और साहस इस कहानी को विशिष्टता प्रदान करता है।

‘सच का दायरा’ में कई वर्षों बाद अपने पैतृक गांव लौटे दंपत्ति गांव में हुए परिवर्तनों को देखकर हक्के-बक्के रह जाते हैं। ओद्यौगिकरण के विस्तार ने गांवों की सौम्यता व निष्चलता को तबाह कर दिया है, कहानी इस ओर संकेत करती है। ‘घरौंदा नहीं, घर’ की सरोजा अपने पति व ससुर के अत्याचारों से तंग आकर घर छोड़ देती है। शिक्षित सरोजा अपने अधिकारों से परिचित है। वह अपने पति को चेतावनी देते हुए कहती है-‘‘पत्नी सदा सहन करती है कि घर का नंगापन बाहर न जाये पर आप तो अन्याय पर अन्याय कर रहे हैं। सुनिये, मैं तीन दिनों की मोहलत देती हूं फिर मैं अदालत के दरवाजे खटखटाऊंगी।’’ (पृ. 99) बी.कॉम. पास सरोजा सरकारी नौकरी पा लेती है और अनामिका को गोद लेकर अपनी एक अलग दुनिया बसाती है। ‘पर्दा, जीवन और सच’ आधुनिक सिनेमा जगत की अपसंस्कृति को उजागर करती है। हिंसा, अपराध और दुष्कर्म की शिक्षा दे रहे टी.वी. व सिनेमा कार्यक्रम पश्चिमी बर्बर चमकदार संस्कृति को प्रोत्साहन दे रहे हैं और समाज को अंधी खाई में धकेल रहे हैं।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘हत्यारे’ छोटे से कथानक में एक बडे प्रश्न की ओर ध्यान दिलाती है। मात्र दो पात्रों के संवाद के माध्यम से लेखक मनुष्य की मनुष्यता की पोल खोलने में सफल रहा है। कहानी में कहे गए ये शब्द निःसंदेह मानव जाति को सोचने पर विवश करते हैं कि क्या वास्तव में वह दुनिया का सबसे सभ्य और श्रेष्ठ प्राणी है? ‘‘आप बाजार में खडे हैं, बम फट गया। रेल में जा रहे हैं, विस्फोट हो गया। बस में यात्रा कर रहे हैं, गोलियों से भून दिया गया। राह चल रहे हैं, कोई छुरा भोंक गया। बताइये, आदमी से बडा हत्यारा कोई है? वह सबसे खूंखार हो रहा है। उससे सारे जीव-जंतु डरते हैं। उससे ज्यादा अभी इस पृथ्वी पर कोई भी भयंकर आदमखोर नहीं है। क्या उसे देखकर हिंसक जानवर आने की हिम्मत कर सकता है।’’ (पृ. 130)

इस प्रकार ये कहानियां युगीन समस्याओं से गहरा सरोकार रखती हैं। वे न केवल पाठक को सोचने पर विवश करती हैं अपितु समस्या के समाधान के प्रति कुछ कर गुजरने को भी उकसाती हैं। अन्याय, अत्याचार व दमन के विरुद्ध खड़ा होकर स्वाभिमान के साथ उसका मुकाबला करने की ताकत इन कहानियों में विद्यमान है। इन कहानियों में चित्रित नारी पात्र बेबस न होकर संघर्षशील हैं, वे अपने अधिकारों को जानती हैं और अपने हक की लडाई लड़ती हैं।

कहानीकार की भाषा शैली तथा वर्णन शैली पाठकों को बांधती  है। राजस्थानी भाषा के आंचलिक शब्दों का सौंदर्य यहां झलकता है। साफ-सुथरी अभिव्यंजना रोचकता व औत्सुक्य गुणों से युक्त है। कहानियों में चित्रित पात्रों के नाम आंचलिक हैं जो आकर्षित करते हैं। कथानक की सुघड़ता, पात्रों का निर्वाह, शिल्प की सहजता, भावों की सरल संप्रेषणीयता तथा उद्देश्य की स्पष्टता आदि विशेषताएं चन्द्र जी जैसे मंजे हुए कहानीकार के परिपक्व तथा अनुभवी दुष्टिकोण को प्रमाणित करती हैं।

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक-वाह किन्नी, वाह (कहानी संग्रह), लेखक-यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, प्रकाशक-वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-02, प्रथम संस्करण 2009 मूल्य-200 रुपये,

संबंधों की दरारों में झांकती कहानियां


डॉ. बानो सरताज के सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो अब मर जाएं’ में संकलित कहानियों में इस युग की धड़कनों को सुना जा सकता है। इन कहानियों में सदी की सबसे बड़ी विड़म्बना के रूप में टूटते संयुक्त परिवारों तथा एकल परिवारों में स्त्री-पुरुष संबंधों का यथार्थ प्रकट हुआ है। विशेषतः इन कहानियों में बुढ़ापे का दर्द, घर में उपेक्षित व्यवहार तथा दर-दर की ठोकरें खाते घर से बाहर निकाले गए वृद्धों के जीवन की व्यथा को लेखिका ने बड़ी बेबाकी से रखा है। इन कहानियों के वृद्ध पात्र जिस यथार्थ को जीते हैं वह जहर से भी अधिक कडवा है।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चलो अब मर जाएं’ के वृद्ध दंपत्ति अपने बेटे-बहू के व्यवहार से इतना आहत हैं कि वे जहर खाकर आत्महत्या कर लेते हैं। वृद्ध बलवंत अपनी पत्नी से कहता है- ‘जीने को किसका मन नहीं चाहता। मुझे अशोक के बेटे को गोद में खिलाने की बड़ी चाह है। निकिता बिटिया को बस्ता लटकाये स्कूल जाता देखने की तमन्ना है। पर निर्मला तू यह मत समझ कि मैं मात्र शारीरिक पीड़ा से तंग आकर मृत्यु की कामना करता रहता हूं....एक ही तो संतान है। वह घड़ी भर को मुस्कुराकर मेरी तबीयत पूछ ले तो मेरी पीड़ा कम हो जाए। मुझे बेटे की उपेक्षा अधिक दुख देती है निर्मला...।’

दूसरी तरफ ‘पागलखाना’ कहानी का सेवानिवृत्त वृद्ध पात्र अपने परिवार के उपेक्षित रवैये से तंग आकर पागल हो जाता है। पागलखाने में उसकी गतिविधियां, हरकतें और बड़बड़ाहट पूरी सभ्यता के पागलपन को उजागर करती हैं। उसका कहना कि ‘यह पागलखाना है? यह पागलखाना नहीं...पागलखाना तो वह दुनिया है जिसमें मैं अभी तक रह रहा था...पागल जो कुछ करते हैं उनकी अच्छाई-बुराई का उन्हें ज्ञान नहीं होता...भले-बुरे की पहचान से परे होते हैं वे...पर नर्स...उन्हें क्या कहोगी जो सब कुछ समझकर भी कुछ नहीं समझते...असली पागल यही होश वाले होते हैं...हां नर्स...मेरी पत्नी से कह दो कि मैं अब होश में आ गया हूं, मेरे बेटों को यहां आने से मना कर दो... मेरा दिल घबरा रहा है... मुझे यहीं सो जाने दो.... मुझे लौटकर उस पागलखाने में नहीं जाना...। नहीं जाना!’ सभ्यता की इससे बड़ी विसंगति क्या होगी जब एक पागलखाने को बेहतर बताया जा रहा हो। निःसंदेह विकास के पथ पर अग्रसर मानवीय सभ्यता की विड़म्बना है कि उसने भौतिक-वैज्ञानिक जगत में तो अपने पांव जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है परंतु इंसानियत का धरातल दल-दल में धंस चुका है।
 
इसी प्रकार ‘फेंकी हुई औरत’ कहानी वृद्धावस्था में बेटे-बहू के साथ रह रही वृद्धा के संताप की कहानी है। जिसकी कीमत पुराने रद्दी अखबारों से ज्यादा नहीं है। बेटे-बहू तथा बच्चों के छुट्टियों के टूर पर चले जाने के बाद उसके टाईमपास के सभी साधनों को ताला लगा दिया जाता है। ‘महरी की छुट्टी, फ्रिज बंद, अख़्बार बंद, टी.वी. बंद, पडोसियों से मेल-जोल पर पहरे के बाद यह रद्दी अख़्बार यहां कैसे रह गए?....क्या इसलिए कि रद्दी है?’ सोचते हुए वृद्धा अपनी नियति को रद्दी अख़्बारों से जोड़ते हुए कहती है-‘हमारा तुम्हारा भाग्य एक-सा है भइया! काम निकल गया, फेंक दिए गए। आओ, हम मिलकर एक-दूसरे का दुख बांटें।’ ‘वारिस’, ‘गलती’, ‘दर-ब-दर’ तथा ‘एकला चलो रे’ कहानियों में भी वृद्धावस्था की विभिन्न समस्याओं को उघाड़ा गया है।

संग्रह की कहानियों में दूसरी जो बात मुख्य रूप से उभरी, वह है स्त्री-चरित्र के विभिन्न पहलू। इन कहानियों में नारी-शोषण, नारी-सशक्तिकरण के साथ-साथ नारी के उच्छृंखल चरित्र को भी उद्घाटित किया गया है। ‘दो कौड़ी की औरत’ में नारी-शोषण, पितृसत्तात्मकता व पुरुष चरित्र के घिनौनेपन को चित्रित किया गया है। कहानी अपने छोटे-से कथानक में नारी के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक तथा यौन-शोषण को अभिव्यक्त करने में सफल रही है। ‘नंगी टांगों वाली औरत’ उत्तरआधुनिकता के स्याह पक्ष को प्रकाशित करती है। लेखिका के स्त्री संबंधी विचार किसी विमर्श की सीमा में कैद नहीं हैं।

इन कहानियों में पुरुष चरित्र के ओछेपन को नंगा किया गया है। ये कहानी स्त्री-स्वातंत्रय की वकालत तो करती हैं परंतु उसकी गरिमा, अस्तित्व तथा मर्यादा को बनाये रखते हुए। स्त्री-स्वातंत्रय का अर्थ स्त्री-उच्छृंखलता कदापि नहीं हो सकता। लेखिका के शब्दों में-‘नग्नता और अश्लीलता स्त्री-स्वतंत्रता का भाग नहीं है, नैतिक मूल्यों का रक्षण-संवर्धन कल भी नारी की जिम्मेदारी थी। आज भी उन्हीं का दायित्व है।’ डॉ. सरताज की कहानियां इस मायने में प्रशंसनीय हैं कि वे एक तरफ जहां पितृसत्तात्मकता और पुरुष-चरित्र के घिनौनेपन को उजागर करती हैं वहीं स्त्री-चरित्र के कमजोर पक्षों को भी रेखांकित करना नहीं भूलती। 

 
हिंदी साहित्य में पुरुष-शोषण को लेकर बहुत कम लिखा गया है। ऐसा नहीं है कि परिवारों में केवल स्त्री का ही शोषण होता है, पुरुष भी अनेक परेशानियों से जूझता है और कई बार स्त्री उसका जीना हराम कर देती है। इस विषय को लेकर अब तक जो बहुत कम मात्रा में कहानियां ध्यान में आई हैं, उनमें डॉ. बानो सरताज की ‘बिजूखा’ और ‘गलती’ शीर्षक कहानियों में स्त्री द्वारा पुरुष-शोषण का जो पक्ष उभरा है, वह उन्हें अन्य कहानियों से अलग करता है। ‘बिजूखा’ का बृजमोहन अपनी पत्नी नेहा के दुर्व्यवहार, बात-बात पर तलाक की धमकी तथा देर रात तक अपने पुरुष मित्रों के साथ क्लबों-पार्टियों में जाने की आदत से तंग आकर घर छोड़ने को विवश हो जाता है। वहीं ‘गलती’ का किशोर अपने मां-बाबा के प्रति पत्नी झरना के उपेक्षित व्यवहार से आहत है। झरना अपने कमरे में बंद होकर उपन्यास पढ़ती अथवा टी.वी. देखती और किशोर अपने वृद्ध बीमार बाबा के कपड़े धोता, फर्श की सफाई भी वही करता। उसकी अनुपस्थिति में जब कभी झरना को यह दायित्व निभाना पड़ता तो वह उठते-बैठते किशोर पर एहसान जताती। डॉ. बानो सरताज की ये कहानियां घर-परिवार के पारस्परिक संबंधों को बड़ी बारीकी से पकड़ने में सफल रही हैं।

भाषा-प्रयोग के मामले में डॉ. सरताज की कहानियों में उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों की बहुलता पात्र तथा परिवेश को जीवंत बनाती है। उनकी गद्य शैली सुगठित है जहां कथानक तथा संवादों का तारतम्य पाठक को ऊबने नहीं देता। गांधीवादी विचारों से प्रभावित डॉ. बानो सरताज का यह संग्र्रह पारिवारिक आदर्शों को बनाये रखने पर जोर देता है। सकारात्मक दृष्टिकोण से लिखी गई ये कहानियां पाठक को जीने का सलीका सिखाते हुए संबंधों के बीच की दरारों को भरने को प्रेरित करती हैं।

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक का नाम- चलो अब मर जायें
लेखिका- डॉ. बानो सरताज
प्रकाशक- विकास प्रकाशन
   311 सी, विश्व बैंक बर्रा, कानपुर-208027 प्रथम सं. 2010
मूल्य- 270 रुपये
  

Friday 12 August 2011

ताकि विदेश में देश जीवित रहे

सभ्यता और संस्कृति की धमनियों में प्रवाहित रक्त को गतिशील बनाए रखने का कार्य भाषा करती है। भाषा की मृत्यु का अभिप्राय है, सभ्यता और संस्कृति की मृत्यु और किसी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति की मृत्यु उस राष्ट्र की मृत्यु होती है। अतः हमें न केवल अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए अपितु उसके संरक्षण व संवर्द्धन के लिए संकल्पबद्ध भी होना चाहिए।

इसी महती उद्देश्य को पूरा करने में जुटी संस्था का नाम है हिन्दी-यूएसए। अमेरिका व कनाड़ा में बसे भारतीयों को अपने देश व संस्कृति से जोड़े रखने व उनके बच्चों को भारतीय संस्कृति से परिचित कराने हेतु सतत प्रयत्नशील यह संस्था पिछले आठ वर्षों से अमेरिका में लगभग 28 हिन्दी विद्यालयों का संचालन कर रही है। जिनमें संस्था के 125 कार्यकर्त्ता लगभग 1700 विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ाते हैं। आरंभ में हिन्दी की कक्षायें कार्यकर्त्ताओं के घर पर या मंदिर में चलती थीं, परंतु धीरे-धीरे हिंदी पढ़ाने के कार्य का विस्तार हुआ व कक्षायें नगर के विद्यालयों में चलने लगीं। हिंदी-यूएसए की प्रथम पाठशाला ‘चेरीहिल पाठशाला’ थी जो सन् 2001 में शुरु की गई थी और सबसे बड़ी पाठशाला ‘एडिसन हिन्दी पाठशाला’ है जो वर्ष 2006 में स्थापित हुई। इस पाठशाला में विभिन्न आयु वर्ग (4-40 वर्ष) के लगभग 360 विद्यार्थी हिन्दी पढ़ रहे हैं।

संस्था की स्थापना सन् 2001 में न्यूजर्सी (अमेरिका) में हुई। संस्था के संस्थापक श्री देवेन्द्र जी व उनकी धर्मपत्नी रचिता सिंह का सपना अमेरिका में बसे भारतीयों के मध्य संवाद की भाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित करना है। हिन्दी-यूएसए के मुख्य उद्देश्य अमेरिका के स्कूलों में हिन्दी को एक ऐच्छिक भाषा के रूप में मान्यता दिलवाना, अमेरिका के स्कूलों में हिन्दी अध्यापन के लिए अध्यापकों का प्रशिक्षण व अमेरिका मे जन्में भारतीय मूल के बच्चों को हिन्दी का बुनियादी ज्ञान कराकर उन्हें अपने पैतृक देश व संस्कृति से जोड़े रखना आदि हैं। अमेरिका में स्थित भारतीय बाजारों में दूकानों के नामों को हिन्दी में लिखवा कर भारतीयों में अपनी भाषा के प्रति गर्व की भावना को बढ़ावा देने का कार्य भी संस्था के उद्देश्यों में है।
 
संस्था द्वारा प्रतिवर्ष हिन्दी महोत्सव का आयोजन किया जाता है जिसमें लगभग 5000 बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। संस्था द्वारा हिन्दी भाषा को व्यवहार में लाये जाने के लिए विभिन्न लिखित व मौखिक वर्ग की हिन्दी प्रतियोगिताएं करवाई जाती हैं। दीपावली समारोह व कविता पाठ प्रतियोगिताएं इन पाठशालाओं के वार्षिक कार्यक्रमों में शामिल हैं। भारतीय साहित्य के प्रोत्साहन में भी संस्था अग्रणी है। समय-समय पर हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ व भारतीय संस्कृति को प्रतिबिंबित करती पुस्तकों की प्रदर्शनियों का आयोजन संस्था द्वारा किया जाता है।

संस्था प्रतिवर्ष कवि सम्मेलन को हिन्दी दिवस के रूप में मनाती है। यह कवि सम्मेलन भारत से राष्ट्रवादी कवियों को आमंत्रित कर आयोजित किया जाता है। अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों में यह कार्यक्रम काफी लोकप्रिय है। भारत से आमंत्रित कवियों में हास्य कवि महेन्द्र अजनबी व सुनील जोगी व ओज व वीर रस के सशक्त हस्ताक्षर श्री गजेन्द्र सोलंकी आदि मुख्य हैं।

संस्था द्वारा हिन्दी-यूएसए की पाठशालाओं में पढ़ रहे बच्चों को ‘भारत को जानांे’ नामक कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत भ्रमण के लिए लाये जाने का कार्यक्रम प्रारंभ किया गया है। इस यात्रा का मुख्य प्रयोजन बच्चों को भारत की सभ्यता व संस्कृति से परिचित करवाने तथा भारत के विभिन्न पहलुओं से बहुत ही गहराई व निकटता से अवगत करवाना है। वर्ष 2008 में भारत भ्रमण पर आये 12 बच्चों ने भारत-भ्रमण कार्यक्रम में न केवल खूब मनोरंजन किया अपितु सांस्कृतिक व ऐतिहासिक रूप से भारतीय तीर्थ-स्थलों व ऐतिहासिक- स्थानों के बारे में जाना, जिससे उन्हें भारत के गौरवशाली अतीत व स्वर्णिम संस्कृति की जानकारी मिली। इस कार्यक्रम में इस संस्था को भारत विकास परिषद का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ। भारत भ्रमण का यह कार्यक्रम अमेरिका में बसे भारतीय मूल के बच्चों में खासा लोकप्रिय हुआ। भारत यात्रा पर आये इन बच्चों द्वारा भोजन ग्रहण करने से पहले भोजन मंत्र का उच्चारण सबको भौचक्का कर देने वाला था और इस संस्था की सार्थकता और सफलता के प्रति आशान्वित व गौरवान्वित करने वाला भी। भारतीय संस्कारों का रोपण, भारतीयता की भावना का संचार, अपने देश व संस्कृति के प्रति जुड़ाव तथा अपनी सभ्यता के प्रति गौरव का भाव प्रवासी भारतीय बच्चों में पुष्पित-पल्लवित करने का कार्य निःसंदेह संस्था की एक बहुत बड़ी उपलब्धि कही जानी चाहिए।

संस्था आज प्रभावी कार्यों में जुटी है और अमेरिका व कनाडा के विभिन्न राज्यों में हिन्दी पाठशालाओं का संचालन कर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही है। संस्था का सफलतापूर्वक संचालन-प्रबन्धन करने का दायित्व निभाया जाता है कुछ निष्काम, निस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले कार्यकर्त्ताओं द्वारा। भारत के भी अनेक गणमान्य व्यक्तियों का सहयोग व मार्गदर्शन संस्था को नियमित रूप से मिलता है। जिनमें महाराजा अग्रसेन मेडिकल कालेज, अग्रोहा (हरियाणा) के वाइस चेयरमेन श्री जगदीश मित्तल, प्रख्यात चित्रकार बाबा सत्यनारायण मौर्य, ओजस्वी कवि राजेश चेतन व राजेश जैन पथिक जैसे अनेक निष्ठावान व भाषाप्रेमी भारतीय प्रमुख हैं।

संस्था ने अमेरिका में चल रही हिन्दी प्रचार-प्रसार की गतिविधियों व अमेरिका में हिन्दी साहित्य लेखन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मार्च 2008 में ‘कर्मभूमि’ नामक ई-पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया है। इस पत्रिका को न केवल अमेरिकी हिन्दी पाठकों ने सराहा बल्कि भारत में भी यह पत्रिका खासी लोकप्रिय है।

इस प्रकार संस्था प्रवासी भारतीयों में अपनी भाषा व संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने व उन्हें अपनी माटी की महक से जोड़े रखने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। संस्था भविष्य में हिन्दी के विकास संबंधी कुछ और नई योजनाओं को कार्यान्वित करेगी, ऐसी आशा है। निःसंदेह संस्था राष्ट्रवादी कवि गजेन्द्र सोलंकी की निम्न पंक्तियों को चरितार्थ करती है-

‘‘हिन्दी मन की भाषा, हिन्दी जन-जन की अभिलाषा हो।
 नयी सदी, नवयुग में हिन्दी नवचेतन की आशा हो।’’

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

समय के विद्रूप से टकराती कहानियां


सोद्देश्यता की कसौटी पर खरा उतरने वाला साहित्य ही लंबे समय तक अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में समर्थ होता है। अनुभूति की प्रमाणिकता व अभिव्यक्ति की सात्विकता किसी भी साहित्यकार को ऊंचा दर्जा दिलाती है। अरविन्द कुमार सिंह की कहानियां इस संदर्भ में सराही जानी चाहिए। उनके कहानी संग्रह ‘उसका सच’ में संकलित नौ कहानियां समय के विद्रूप से टकराने का न केवल माद्दा रखती हैं अपितु क्रिया-प्रतिक्रिया भी उत्पन्न करती हैं। सामंतवाद, पूंजीवाद व साम्राज्यवाद को नंगा करके उसके घिनौनेपन तथा दलित, शोषित व पीडित वर्ग के मर्म का यथार्थ अंकन इन कहानियों में हुआ है।

संग्रह की प्रथम कहानी ‘सती’ सवर्ण बच्चों द्वारा एक दलित बच्चे के साथ किए जा रहे बर्बर व्यवहार को दर्शाती है। दलित बच्चे नक्कू के पिता की मृत्यु के साथ ही मां को समाज द्वारा बलात सती कर देना मार्मिक घटना है। इक्कीसवीं सदी के इस प्रगतिशील युग में ऐसी घिनौनी व बर्बर घटनाएं न केवल रोंगटे खड़े करती हैं अपितु शर्मिंदा व बेचैन भी करती हैं। यहां निम्न व उच्च दोनों वर्गों की अपनी-अपनी विवशताएं खुलती हैं। निम्न वर्ग भूख व गरीबी के चलते मजबूर है तो उच्च वर्ग अंधविष्वास के चलते अपनी सुरक्षा के प्रति बेचैन दिखाई देता है।

‘विष पाठ’ में कहानीकार का इतिहासकार खुलकर सामने आया है। अरविन्द कुमार भारतीय इतिहास की गहरी परख रखते हैं। कहानी कांग्रेस द्वारा 1952 में लाए गए जमींदारी उन्मूलन कानून से लेकर 1992 में हुए बाबरी विध्वंश तक के भारतीय राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य को बड़ी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करती है। जमींदारी उन्मूलन कानून के बाद अवध के नबावों व जमींदारों की प्रतिक्रियाआंे के साथ-साथ कहानी यह भी रेखांकित करती है कि किस प्रकार नबावों व जमींदारों की कामुकता व ऐयाशी न केवल उनके अपने अपितु देश के भविष्य व अस्तित्व को भी लील गई। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘उसका सच’ की बांझ दलित महिला सुनयना धोपाप घाट पर स्नान व पापर देवी के दर्शन के लिए जाती तो है संतान की लालसा में, परंतु चुरा लाती है अपने पति हरफूल के घायल पांवों के लिए जूते। दलित गरीब महिला की विवषता का चित्रण यहां बड़े ही स्वाभाविक तरीके से उजागर हुआ है।
‘बीमारी’ पूंजीवाद की जड़ों को खंगालती है। कारपोरेट जगत में ऊंची पैठ बना चुके सक्सेना दंपत्ति के पास अपने बेटे के लिए समय नहीं है। अतिमहत्वाकांक्षी यह दंपत्ति बिजनेस में इस कद्र व्यस्त है कि वे कभी-कभी उस पल को भी कोसने लगते हैं, जब विक्की पैदा हुआ था। एक मां द्वारा अपने बीमार बेटे के लिए यह कहना कि ‘अगर यह जिंदा रहा तो हम लाइफ में कुछ भी नहीं कर सकेंगे।’ विड़म्बनापूर्ण है। पूंजीवादी शक्तियां किस प्रकार श्रम कानूनों को खत्म करने और यूनियनों को प्रतिबंधित करवाने को उतावली हैं, इसका पर्दाफास इस कहानी में हुआ है। विश्व पूंजीवाद व आर्थिक साम्राज्यवाद कैसे मालिक-मजदूर संघर्ष को जन्म दे रहा है और आदमी को स्वार्थी व जाहिल बना रहा है। इसका स्पष्ट चित्रांकन इस कहानी में हुआ है।

अरविन्द कुमार सिंह पूरी व्यवस्था की पोल खोलते हैं और वह भी बेबाकी से। पूंजीवाद की व्यवस्था से सांठ-गांठ को भी वे उघाड़ते हैं। ‘कांटा’ कहानी में लेखक आधुनिक दलित विमर्श की वैचारिक सीमाओं की ओर संकेत करने में सफल रहा है। ‘‘बप्पा हमारी लड़ाई जाति से नहीं, जुलुम-अत्याचार से है। चाहे वह चौधरी का जुलुम हो, चाहे ठाकुर मुखिया का।’’ शहर से पढ़कर गांव लौटे ठाकुर पुत्र के विचार नयी पीढ़ी की सोच को प्रतिबिंबित करते हैं। वर्ग बनाम वर्ण और परंपरा तथा आधुनिकता के द्वंद्व को उकेरती है यह कहानी। कहानी जाति व धर्म के नाम पर हो रही राजनीति के प्रति पाठकों को सचेत करते हुए धर्म, जाति व संप्रदाय के आधार पर झगड़ने की बजाय उस व्यवस्था व मानसिकता से संघर्ष को प्रेरित करती है जो शोषण व असमानता को जन्म देती है।

संग्रह की अंतिम कहानी ‘लंबी टेर का दर्द’ उत्तर आधुनिक समाज के खोखलेपन की ओर निर्दिष्ट करती है। मानव जाति के लिए इससे बड़ी विड़म्बना क्या होगी, यदि मानव को मानव होने में ही हीनता महसूस होने लगे। कहानी के केंद्रीय पात्र एक गरीब ठाकुर दुखराज सिंह उर्फ दुक्खू को अगले जन्म में कुछ भी बनना स्वीकार है परंतु मनुष्य नहीं। कहानी का यह बेहद बेबस पात्र क्रांतिकारी रूप में सामने आता है। अपने सगे भाई से धोखा खाए व निर्दयी तमाशबीन समाज से आहत दुक्खू चुनाव लड़ता है। वह अदालत में कहता है-‘‘गरीब-दुखिया इस मुलुक के लिए चींटी और मच्छर हैं। हर कोई उसे पीस डालना-मार डालना चाहता है। उसकी रक्षा केे लिए कहीं कोई कानून नहीं है, कोर्ट-कचहरी, पुलिस-वकील सब झूठ है-फरेब है...।’’ दुक्खू द्वारा दिए गए भाषण के अंश आम आदमी के उस दर्द व आक्रोश की अभिव्यक्ति है जो शोषित व बेकसूर लोगों की नसों में नासूर की तरह दौड़ रहा है। ‘‘मुलुक के नेता चोर और गुंड़े हैं। गरीबों की खलरी उधेड़ रहे हैं। हमारा खून पी रहे हैं।’’ ‘‘हम प्रधान बने तो हर मंत्री को काला पानी भेज देंगे। एमपी-एमेले के मुंह में कुत्तों से पेशाब करवा देंगे। जज, डिप्टी कलेक्टर और दरोगा-ससुर सब बेकसूर को सताते हैं, इनके मुंह पर कालिख पोत कर जिले भर में गधे पर घुमाया जाएगा।’’

अरविन्द कुमार सिंह सीधी सरल भाषा में ही अपना लक्ष्य साध लेने में समर्थ हैं। उनकी भाषा में एक तरफ जहां प्रतिकार, आक्रोश व गुस्सा है तो दूसरी ओर एक तेवर भी है जो सामने वाले को धराशायी करने की ताकत रखता है। वे अपनी बात बेबाकी से रखते हैं उन्हें न तो किसी प्रकार का भय है और न ही संकोच। व्यवस्था की नपुंसकता व भ्रष्टता को उजागर करने का साहस भी उनमें है। सामाजिक यथार्थ यहां परत-दर-परत खुलता है वह भी बड़ी ही ईमानदारी व साफगोई के साथ। संग्रह की सभी कहानियां ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हैं और संवेदनात्मक स्तर पर इनमें कहानीकार की जनपक्षधरता की अभिव्यक्ति हुई है। लेखक शोषित वर्ग के जीवन की अंतः बाह्य समस्याओं से परिचित है तभी उनके कथानक प्रामाणिक बन पड़े हैं।

पुस्तक-उसका सच, (कहानी-संग्रह) लेखक-अरविन्द कुमार सिंह, प्रकाशक-प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, मूल्य-150 रुपये

कृष्ण कुमार अग्रवाल, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

आधुनिक समाज के स्याह पक्ष को उभारती कहानियां


पंखुरी सिन्हा की कहानियों को बहुत कुछ कहने की कहानियां कहा जा सकता है। निः संदेह पंखुरी का पहला कहानी संग्रह ‘कोई भी दिन’ आधुनिक जीवन की कई ज्वलंत समस्याओं की पड़ताल करता है। पंखुरी की कहानियों में एक तरफ जहां परंपराओं के विघटन के दृश्य स्वाभाविक रूप में आये हैं, वहीं सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक विसंगतियों व विद्रूपताओं पर भी वे सार्थक बहस के कुछ विषय अपने प्रबुद्ध पाठक वर्ग के सम्मुख रख छोड़ती हैं। आधुनिकता व परंपरा का वैषम्य, पत्रकारिता में गिरता मूल्यों का स्तर, रंगभेद व नस्लभेद, परतंत्रता व स्वतंत्रता की राजनीतिक समानताओं का जिक्र, राजनीति के भ्रष्ट आचरण से जुड़े ज्वलंत प्रश्न, आस्था व अनास्था के प्रश्न, अन्तर्जातीय विवाह, स्त्री जीवन की व्यथा कथा, गांव से जुड़ी यादें आदि जीवन के लगभग सभी रंग-बदरंग इस कहानी संग्रह में अपने तटस्थ व निष्पक्ष रूप में अभिव्यक्त हुए हैं।
 
आधुनिकता व भौतिकता की अंधी-आंधी गांवांे तक पहुंच चुकी है और उसने गांव के निश्छल व सौम्य वातावरण में भी जहर घोल दिया है। ‘तालाब कहो या पोखर’ कहानी गांवों के शहरों में तब्दील होने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई समस्याओं को दर्शाती है। गांवों को षहरों में तब्दील करने के हमारे उतावलेपन ने हमें मुसीबत में डाल दिया है। गांव के तालाब को भरकर घर बना दिए गए, जिसके कारण गांव में बाढ़ आ गई। ‘ये घर तालाब को भरकर बने हैं। जो पानी पहले तालाब में लुढ़क जाता था वह अब घरों के अन्दर फैल रहा है। जमीन आखिर कितना पानी सोख सकती है! और खाली जमीन भी कितनी बची है?....’’ ( पृ025) पंक्तियां आधुनिक सभ्यता की उस विड़म्बना को दर्शाती है जिसमें कि मानव प्रकृति का अंधाधुंध शोषण कर रहा है और प्रकृति से ऐसी छेड़छाड का नतीजा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भुगत रहा है।

‘कहानी का सच’ शीर्षक कहानी पत्रकारिता जगत के रहस्यों के सच को उजागर करती है। छोटे से कथानक में सिमटी यह कहानी बेहद आवश्यक विषय को उठाने में सफल रही है। टीआरपी की होड़ ने विकास पत्रकारिता का दमन कर दिया है। आज न्यूज वैल्यू के मायने बदल गए हैं। ‘‘देखो नीरज, आयुर्वेद, हकीमी इन सबकी बुरी हालत हो रही है। पर ये खबर नहीं है।... मान लो, अगर यह इमारत ढह जाए और दो बच्चे मर जाएं, तो वो खबर है।’’(पृ035) पंक्तियां पत्रकारिता के असल चेहरे का परिचय है। सिनेमा की तरह ही पत्रकारिता जगत भी कहानी की मांग यानि चैनल की दर्शक संख्या व टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

 
‘बहुत साल बाद’ शीर्षक कहानी स्वतंत्रतापूर्व व स्वातंत्र्योत्तर भारत की परिस्थितियों के तुलनात्मक विश्लेषण की कहानी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी आम आदमी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। रिश्वतखोरी व भ्रष्टाचार, रंगभेद व नस्लभेद ज्यों के त्यों बने हुए हैं। कहानी में एक स्वतंत्रता सेनानी को स्वयं को स्वतंत्रता सेनानी सिद्ध करने के लिए इतनी दौड़-धूप करनी पड़ती है कि अन्ततः हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो जाती है। इसे स्वतंत्र व संप्रभु भारत के मुॅंह पर करारा तमाचा नहीं तो और क्या कहा जाए? ‘‘बेघर लोग जो पहले जॉर्ज पंचम की मूर्ति के नीचे सोते थे, अब जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति के नीचे सोया करेंगे। उन्हें क्या फर्क पड़ता है मूर्ति किसकी है।’( पृ039) पंक्तियां आजादी के बाद गरीबों की स्थिति को चित्रित करती है। पूरी की पूरी कहानी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वे दृश्य प्रस्तुत करती है जो वस्तुतः पराधीन भारत के जैसे ही हैं।


‘एक नास्तिक की आस्था’ कहानी में एक अध्यापिका जो धर्म को श्रद्धा व आस्था का विषय मानकर धार्मिक दिखावे व आड़म्बर का विरोध करती है, उसे स्कूल प्रशासन धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों के हनन का अपराधी घोषित कर देता है। ‘‘नास्तिक होना अनुषासनहीन भक्ति से अधिक मंगलमय है।’’( पृ075) मालती जी के विचार धर्म के सही-सही स्वरूप को व्याख्यायित करते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी, जिसे सरस्वती वंदना भी ठीक से याद नहीं है, उनके इन विचारों की अनदेखी करती हुई धार्मिक आयोजनों को मनोरंजन व दिखावे का अवसर बना देती है। कहानी में कबीर व निराला जैसे क्रान्तिकारी व प्रगतिवादी कवियों के उद्धरण कहानी की प्रभावोत्पादकता में अभिवृद्धि तो करते ही हैं साथ ही कहानी जिस विषय को प्रमुखता से उठाती है, उस संदर्भ में भी प्रस्तुत उद्धरण प्रासंगिक हैं।
‘सान्त्वना’ कहानी अन्तर्जातीय व अन्तर्धामिक विवाह के प्रति परंपरागत समाज की धारणा व उसमें बदलाव की कहानी है। ‘अपने पराये’ में विदेशों में कार्यरत भारतीय युवाओं का संवाद है, जो दिखलाता है कि नस्लभेद केवल विदेशों में ही नहीं अपितु भारत में ही भारतीयों के साथ भी होता है। ‘प्रदूषण’ शहरी कामकाजी महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित करती है। कहानी अंग्रेजी शब्द ‘कजिन’ के निहितार्थों को समझाते हुए आधुनिक युग में रिष्ते-नातों के खोखले व भद्देपन का भी पर्दाफास करती है।

‘अकेला पर्यटन और अकेली पूजा’ कहानी में विदेशों में बसे भारतीय युवकों के दोगले चरित्र का चित्रण किया गया है। साथ ही कहानी आज के संबंधों में दिखावेपन को भी दर्शाती है। ‘‘विकसित होने का यह मतलब थोडे ही हुआ कि आदमी मृतप्राय हो जाए। न जोर से बोले न जोर से गाए, न बजाये।’’( पृ0105) कहानी विकसित होती मानव सभ्यता से लुप्त होते जा रहे जीवन मूल्यों के साथ-साथ यह भी बयान करती है कि ‘‘यहां तो ऐसी चुप हर समय लगी रहती है कि लगता है कि आदमी श्मशान में रह रहा हो।’’( पृ0105) ‘बेलगाम रेस’ में नारी की पीड़ा व पुरुष के अत्याचारों का लेखा-जोखा है। ‘आवाजें’ अपने षहर व मां से जुड़ी यादों की भावात्मक कहानी है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कोई भी दिन’ तर्कहीन अंधविश्वास पर चोट करती है।
 
इस प्रकार पंखुरी सिन्हा का यह कहानी संग्रह कई मायनों में महत्वपूर्ण बन पड़ा है। यहां भाषा का मिजाज बौद्धिक है, कहन का अंदाज निराला है। संग्रह आधुनिकता के चिकने चेहरे पर पुते स्याह दब्बों को उकेरता है वहीं भारत के तथाकथित लोकतंत्र व गणतंत्र की भी खबर लेता है। कहानियां ज्यादा कहने की ललक व वैचारिकता के बोझ में बोझिल तो अवष्य हैं परंतु उनमें निहित संदेष महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।

कृष्ण कुमार अग्रवाल, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
मो0 09802525111
 
कोई भी दिन: पंखुरी सिन्हा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2006, मूल्य- 50 रुपये,

Thursday 11 August 2011

एक नए आंदोलन का सूत्रपात करती कहानी

एक नए आंदोलन का सूत्रपात करती कहानी

इक्कीसवीं सदी के उत्तर आधुनिक परिवेश में प्रवेश कर चुकी मानव सभ्यता ने विकास के अनेकों नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, सूचना-संचार व प्रोद्यौगिकी के दंभ में चूर मनुष्य चंद्रमा पर कॉलोनियां बसाने व समुद्र की सतह पर रेस्तरां बनाने जैसे हैरतअंगेज सपनों को साकार करने की दिशा में अग्रसर है। परंतु विकास के मायने विड़म्बना से ग्रस्त है। यह सदी एक तरफ जहां अनेक उपलब्धियों का आकर्षण अपने साथ लिए है उससे कहीं अधिक विसंगतियां भी इसके गर्भ में पल-बढ़ रही हैं। ‘‘हमारे संस्कारों में लूट खसोट, जातिगत ऊंच-नीच की भावना आज भी यूं की यूं बरकरार है। हमारे समाज में जातियों की कबीलाई संस्कृति आज भी यूं की यूं पैठ बनाए हुए है। एक-दूसरे के हक को हड़पने की प्रवृत्ति ने आज भी पीछा नहीं छोड़ा है। आज भी ऐसे लोग हैं जो हजारों वर्षों पहले के विभाजन पर आधारित वर्ण व्यवस्था या संस्कृति को महान बताकर उसी अनुसार आचरण करते हैं।’’

साहित्य ने इन विसंगतियों को बेहद करीब से महसूस किया है। आज साहित्य में शोषित, पीडित, सर्वहारा व दलित वर्ग के पक्ष में जो आंदोलन चल रहे हैं, वे यूंही नहीं पनपे हैं अपितु सदियों का दमन, शोषण, उत्पीडन व तिरस्कार इस विरोध व विद्रोह की पृष्ठभूमि में है। दलित साहित्य इसी प्रकार का एक आंदोलन है जो दलितों के जीवन, उनके सुख-दुःख, उनकी सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों, उनकी संस्कृति, उनकी आस्थाओं-अनास्थाओं, उनके शोषण व उत्पीडन तथा इस उत्पीडन-शोषण के दलितों द्वारा प्रतिरोध की परिस्थितियों को व्यापकता तथा गहराई के साथ, कलात्मकता से प्रस्तुत करता है।

डॉ. राजेन्द्र बड़गूजर दलित लेखन के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। दलित साहित्य लेखन में वे अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं उनकी यह पहचान न केवल दलित हितों के पक्ष में लेखन के कारण है अपितु उन्होंने दलितों के मध्य अनेक सामाजिक कार्य भी किए हैं। डॉ. बड़गूजर का एक कविता संग्रह ‘मनु का पाप’ व एक कहानी संग्रह ‘कसकः एक दलित टीस’ प्रकाशित हो चुके हैं। भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली से ‘अम्बेड़कर फैलोशिप अवार्ड’ से पुरस्कृत डॉ. बड़गूजर राधाकृष्ण सनातन धर्म महाविद्यालय, कैथल में हिन्दी के प्रवक्ता हैं। अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार उन्होंने दलित बस्तियों में जा-जाकर दलित बच्चों और युवाओं को शिक्षा की महत्ता का न केवल बोध कराया है अपितु वे स्वयं स्कूल न जाने वाले दलित बच्चों को अध्यापन कराते रहे हैं और अनेक निर्धन दलित बच्चों को उन्होंने विद्यालयों में दाखिला भी दिलवाया है।

बड़गूजर जी की लम्बी कहानी ‘हमारी जमीन हम बोएंगे, हम बोएंगे, हम बोएंगे!’ दलित विमर्श की दिशा में एक मील के पत्थर के समान है क्योंकि इस कहानी में उठाया गया मुद्दा जितना जरुरी है उतना ही महत्वपूर्ण भी। कहानी का र्शीषक ही जैसे पूरे मंतव्य को अभिव्यक्त कर देता है। दलितों की बुनियादी समस्याओं को समझना व उनके समाधान को खोजे बगैर दलित विमर्श अपने मकसद पूरे करने में सफल नहीं हो सकता। डॉ. बड़गूजर इस सत्य से भली-भांति परिचित हैं। वे अपने लेखन में ऐसे ही विषयों को उठाते है जो दलित वर्ग की असल समस्याएं हैं और वे इन विषयों को इतनी कुशलता से अभिव्यक्त करते हैं कि आम-खास दोनों ही वर्ग उनसे सहमति जताते हैं।



कहानी में लेखक दलितोत्थान से जुड़े दो विषयों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। पहला शिक्षा की अनिवार्यता और दूसरा गांवों की पंचायती जमीन में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित जमीन पर स्वयं दलितों द्वारा खेती का और उनके अपने स्वामित्व का। कहानी का नायक राजकमल गांव में अपने भाषण में शिक्षा को एक सशक्त हथियार की संज्ञा देता है। वह कहता है कि एक शिक्षित व्यक्ति ही अपने अधिकारों को जानने में सक्षम है और अपने समाज के उत्थान के लिए कार्य कर सकता है। शिक्षा को विकास का माध्यम बताते हुए वह कहता है कि ‘‘हमारे समाज को अगर किसी चीज की जरुरत है तो वह है शिक्षा, शिक्षा और केवल शिक्षा। शिक्षा के बिना ऐसा कोई भी साधन नहीं है जिसकी मार्फत हमारा विकास हो सकता हो।’’ वह दलित शिक्षित युवाओं पर यह जिम्मेवारी डालता है कि ‘‘हम पढ़े लिखे हैं। हमारी जिम्मेवारी बन जाती है कि हम अपने समाज की बदहाली को गुनें और उसे दूर करने के संभावित उपाय खोजें।’’

सन् 1964 में बने ‘विलेज कॉमन लैण्ड रूल्ज’ के मुताबिक गांव की कुल कृषि योग्य उपजाऊ भूमि का 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति, पिछड़े वर्ग तथा आजादी के बाद युद्धों में मारे गए सैनिकों के आश्रितों के लिए आरक्षित है। परंतु इस भूमि को सवर्ण वर्ग ही बोता आ रहा है। अशिक्षित, निर्धन व हीन-भावना से ग्रस्त दलित वर्ग सवर्ण वर्ग की चिकनी-चुपड़ी बातों में अपने अधिकार अर्थात जमीन को सवर्ण वर्ग को दे देता है। प्रस्तुत कहानी में इसी विषय को केंद्रित किया गया है। कहानी का नायक राजकमल और उसके साथी दलित वर्ग के प्रतिनिधि शिक्षित कार्यकर्त्ता हैं। वे गांव-गांव जाकर गांववासी दलितों को जागरुक करने का कार्य करते हैं। वे गांव में दलित वर्ग के लिए आरक्षित भूमि पर दलितों का स्वामित्व चाहते हैं। वे गांववासियों को समझाते हैं कि वे अपने अधिकारों को न गवायें क्योंकि इससे न केवल उनका आर्थिक उत्थान होगा, बल्कि सामाजिक समानता की दिशा में भी इसका सकारात्मक प्रभाव होगा।

लेखक राजनीतिक षड़यंत्र को बेनकाब करते हुए भारतीय राजनीति के घिनौनेपन के साथ-साथ दलित राजनीति की दलितोत्थान में अपर्याप्त भूमिका पर भी प्रहार करता है। वह ग्रामीणों को संगठित होने का आह्वान करते हुए कहता है- ‘‘कुछ तो सरकार की नीयत ठीक नहीं और कुछ हमारे में से ही ऐसे नेता हें जो उनके पिछलग्गू हैं जो स्वार्थों में पड़े रहते हैं। पूरे समाज का स्वार्थ कोई नहीं देखता। छह हजार से ज्यादा जातियों में हमें बांट दिया, हम आपस में ही लड़ते रहते हैं। अगर चमार, भंगी, सैंसी, ओड़, धानक एक नहीं हुए तो वे लोग हमें एक-एक करके खत्म कर डालेंगे।’’ लेखक को इस बात का बहुत क्षोभ है कि दलित वर्ग में पढ़ा-लिखा व शक्ति संपन्न वर्ग जिसका अपने समाज के उत्थान व विकास के प्रति उत्तरदायित्व बनता है, वह अपनी जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाह है, अपने कर्त्तव्यों से विमुख है। यह वर्ग सुविधाएं पा लेने के बाद उसी तंत्र का हिस्सा बन गया है जो सदियों से उनका शोषण-उत्पीड़न करता आ रहा है। ‘‘जिन लोगों को समर्थ होकर समाज का नेतृत्व करना चाहिए था, वे निष्क्रिय होकर भेदभाव पर आधारित संस्कृति के पोषकों के पक्ष में जाकर खड़े हो गए हैं। उनकी निष्क्रियता ही हमारा सबसे बड़ा अभिशाप है।

समाज में जितना अंधविश्वास, किस्मत, भाग्यवाद, देवी-देवतावाद, स्वर्ग-नरक का झांसावाद फैला हुआ है उसके निराकरण के लिए बाबा साहब अंबेड़कर का साहित्य पढ़कर समाज को उस झांसे से निकालने को कार्य तो पढ़े लिखे लोगों को ही करना था परन्तु वे स्वयं उसी दलदल में फंसे हुए हैं। केवल पांच, ज्यादा से ज्यादा दस प्रतिशत सुविधाप्राप्त दलित अपनी जिम्मेवारी को समझकर बाबा साहब के सपने पूरे होने की दिशा में काम कर रहा है बाकि तो अपने में मस्त है।’’ लेखक संपन्न दलितों का भी समर्थन इस आंदोलन में चाहता है।

लेखक किसी प्रकार के पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त नहीं है। एक तरफ वह जहां सवर्णों द्वारा दलित वर्ग के शोषण को रेखांकित करता है वहीं सवर्ण वर्ग के उस तबके की ओर भी संकेत करता है जो दलितों के पक्ष में हैं। वह दलित वर्ग की अपनी कमजोरियों व गंदी आदतों का भी जिक्र करता है। वह उन्हें छुपाता नहीं, बल्कि उघाड़ता है। ताकि दलित समुदाय अपनी न्यूनताओं को जानें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करंे। जातिगत यथार्थ निम्न पंक्तियों में द्रष्टव्य है-‘‘सैंसी आज तक भेडों में उलझे हुए हैं। भेड़ चराते हैं, दारू पीते हैं, बस और क्या चाहिए। छोटे-छोटे बच्चे कुरड़ियों पर बीड़ी के डंडूक चुगते फिरते हैं। आप ताश खेलते हैं। महिलायें दूसरे घरों में झाडू पोचा करती हैं।’’



लेखक पंचायती जमीन पर अनुसूचित जाति द्वारा स्वयं काश्त करने पर बल देता है। कहानी के पात्र राजकमल व उसके साथी तथा चार युवा विद्यार्थी इस कार्य के लिए तत्पर हैं कि गांव पाडला के दलित इस बार बोली को अपने पक्ष में छुडवा लेंगे और स्वयं काश्त करेंगे। राजकमल अपने भाषण में बताता है कि पूरे प्रदेश के गांवों में अनुसूचित वर्ग के लिए जो जमीन आरक्षित है उससे उन्हें करोडों रुपये का मुनाफा हो सकता है। जिससे दलित समुदाय की अधिकांश समस्याएं हल हो सकती हैं। वह गांववासियों को झकझोरते हुए कहता है कि ‘‘गांव में जब भी दलित और सवर्ण के झगड़े होते हैं तो सवर्ण जमीन का दंभ दिखाकर सबसे पहले खेतों में बंदी लगाते हैं। घास-फूंस, जंगल-पानी के लिए वे अपने खेतों में हमें जाने से रोकते हैं।...जमीन हमारी तो पूरा बगड़ चाहे कितना ही न्यार पशुओं को चराएं। आप अपनी जमीन लेकर जमींदार को सौंप कर खुद उसमें मजदूरी करते हो। आप स्वयं मालिक बनकर मजदूर बन जाते हो। इससे बडी शर्म की बात नहीं हो सकती।’’ ग्रामीणों के एक स्वर में यह कहने पर कि वे अपनी जमीन छुडवायेंगे और स्वयं काश्त करेंगे, राजकमल व उसके साथियों को अपना उद्देश्य पूरा होता दिखता है। उन्हें शंकाओं के साथ साथ विश्वास भी है परंतु सवर्ण वर्ग इस बार भी नशाखोर दलितों के दम पर जमीन अपने पक्ष में छुड़वा लेते हैं। इस पर ‘गांव में आरक्षित कृषि भूमि बचाओ संघर्ष समिति’ संवैधानिक तरीके से प्रतिक्रिया करते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन का आयोजन करती है और उपायुक्त को ज्ञापन सौंपती है। फैसला दलितों के पक्ष में होता है परंतु अभी संघर्ष अधूरा है क्योंकि जब तक जमीन पर स्वयं दलितों का स्वामित्व नही हों जाता, यह संघर्ष जारी है।


लेखक का उद्देश्य केवल पाड़ला गांव के अनुसूचित जाति के लोगों तक सीमित नहीं है। वे इस मुहिम को गांव पाड़ला के माध्यम से पूरे प्रदेश के गांव गांव तक ले जाना चाहते हैं। इस विषय में व्यापक जन-जागरण आंदोलन की आवश्यकता है तभी वे इस कहानी के में दलित राजनेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों व युवाओं को आह्वान करते हैं क्योंकि यह आंदोलन एक बडी ताकत की मांग करता है और इस आंदोलन में दलित समुदाय के साथ-साथ उन वर्गों को भी सामने आना चाहिए जो सामाजिक व आर्थिक समानता व शोषित, पीडित व सर्वहारा वर्ग के उत्थान की बात करते हैं। इस प्रकार यह कहानी न केवल अपने कथानक के स्तर पर बडी है अपितु अपने उद्देश्य के संदर्भ में भी बडी है। दलित वर्ग की एक बुनियादी समस्या को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में उठाने में यह कहानी सफल रही है।


कहानी का शीर्षक प्रासंगिक तथा सार्थक है। यह सत्याग्रह का नारा है, संगठन का संदेश है, क्रांति की दस्तक है और अपने अधिकारों को पाने की जागृति का बिगुल भी। कहानी का अंत पाठकों के समक्ष करने के कुछ कार्य छोड़ जाता है न कि वह पाठकों को निष्क्रिय बैठने की अनुमति देता है असल आंदोलन तो अब शुरु होना है क्योंकि समस्या को चिन्ह्ति कर लिया गया है, उसका समाधान अभी बाकी है।

कृष्ण कुमार अग्रवाल, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111