Friday 19 August 2011

भावुक हृदय को अभिव्यक्त करती कहानियां

राजस्थान विश्वविद्यालय में संगीत विभाग की सेवानिवृत्त अध्यक्षा श्रीमती सुरेखा सिन्हा साहित्य और संगीत के क्षेत्र में समानांतर रूप से सक्रिय रही हैं। श्रीमती सुरेखा जी का व्यक्तित्व और कृतित्व एक-दूसरे का पूरक है। उनका संपूर्ण जीवन साहित्य और संगीत की सेवा में लगा और अन्ततः जीवन के बाद भी उनका देहदान का संकल्प उनके प्रति श्रद्धानवत करता है। साहित्य और संगीत के साथ-साथ आध्यात्म, दर्शन और मनोविज्ञान आदि विषयों पर भी लेखिका का अधिकार है।

उनके सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘उस धूप की छांह’ की कहानियांे के कथानक उनके जीवनानुभवों का लेखा-जोखा है। लगभग सभी कहानियों में लेखिका अपने सगे-संबंधियों, मित्र-परिचितों के साथ बिताये लम्हों को स्मरण करते हुए कहानी लिखती हैं। इसलिए इन कहानियों को पढ़ते हुए एक तरफ जहां महादेवी वर्मा के संस्मरणों की याद ताजा हो जाती है, वहीं आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई ये कहानियां पाठक को जीवन के प्रति एक नई दृष्टि भी देती हैं। डॉ. सुरेखा जी की कुछ कहानियों में उनका पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम भी झलकता है। महादेवी वर्मा की तरह उनकी कहानियों में प्रयुक्त पशु पात्रों के प्रति लेखिका की संवेदना तथा अपनापन उनकी कहानियों को अलग पहचान देता है।

वस्तुतः इन कहानियों के सभी पात्र जिंदा हैं और डॉ. सुरेखा के परिवार, पड़ोस तथा शहर में उन्हें देखा जा सकता है, उनसे मिला जा सकता है। इन कहानियों की यह विशिष्टता भाव पक्ष को मजबूती प्रदान करती है तो शिल्प को कमजोर भी बनाती है। क्योंकि कहीं-कहीं लेखिका अत्यंत भावुक होकर एक घटना के बाद दूसरी घटना का सिलसिलेवार ब्यौरा-सा देने लगती हैं जहां कहानी का कहानीपन गायब होकर रचना की रोचकता और परिपक्वता को प्रभावित करने लगता है।

डॉ. सिन्हा की कहानियों में वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष चरित्र तथा मानसिकता में आये परिवर्तनों को समझा जा सकता है। उनकी कहानियों में एक तरफ जहां पुरुष चरित्र का घिनौनापन सामने आता है। वहीं कभी-कभी पुरुष अपने परिवार तथा पत्नी के सामने कितना बेबस हो जाता है, यह भी इन कहानियों में चित्रित हुआ है। संग्रह की ‘उलझी जिंदगी’ शीर्षक कहानी में पुरुष का अपनी और पराई स्त्री के प्रति भिन्न दृष्टिकोण प्रकट होता है, जो उसके दोगलेपन को दर्शाता है। चोपड़ा साहब मिसेज बंसल के बोल्ड नेचर तथा सिम्पल हार्टेड़ होने की प्रशंसा करते हैं वहीं अपनी पत्नी के प्रति उनके विचार अलग हैं। दूसरी ओर मिसेज बंसल टेलीविजन में काम करने के आकर्षण में फंसकर घर छोड़कर एक व्यक्ति के साथ भाग जाती है। मिसेज बंसल को घर वापिस लेने गए मिस्टर बंसल को जो जबाव सुनने को मिलते हैं, वे उल्लेखनीय हैं।

मिसेज बंसल कहती हैं-‘यह मेरा पर्सनल मामला है। आपसे मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैं शादी करूं या कुछ और करूं’, ‘मैं ऐसे आदमी से शादी कर रही हूं जो बहुत फ्री और ब्रोड-माइन्डेड हैं। मेरे प्रोग्राम कभी भी कहीं भी होंगे, उनको कोई ऐतराज नहीं होगा।’, ‘आपकी इज्जत और बच्चों के पीछे मैं अपने अरमानों का गला घोंटकर मर जाऊं? आप जा सकते हैं।’ इक्कीसवीं सदी की यह स्त्री न तो अपने पति से कोई अपना कोई संबंध मानती है और न बच्चों से। उसकी नजर में घर-परिवार बंधन है और वह किसी भी कीमत पर अपनी आजादी खोना नहीं चाहती।
 
इसी प्रकार ‘क्या करूं’ की स्त्री, जो डॉक्टर है अपने पति के गंवईपन के कारण अपने सर्किल में शर्मिन्दगी महसूस करती है। उसका स्टेटस जितना हाई होता जाता है, अपने पति के प्रति उसकी हीनता बढ़ती जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि पति, बच्चों को साथ लेकर गांव चला जाता है और डॉक्टर साहिबा अपने बहनोई के साथ रहने लगती हैं। परंतु अन्ततः उसे अपने पति और बेटे की याद आती है, परंतु अब कुछ नहीं हो सकता।
डॉ. सिन्हा की कहानियों में पारिवारिक आदर्शों की स्थापना के प्रति लेखिका का प्रयत्न प्रशंसनीय है। उक्त दोनों कहानियों में स्त्री पात्रों के भटकाव के बावजूद कहानी का अंत आदर्शों को बनाये रखता है। ‘संबंधों के सोपान’ शीर्षक कहानी में सास-बहू संबंध के बीच की जो मधुरता, समझ तथा समर्पण अभिव्यक्त हुआ है, वह वर्तमान टेलीविजन धारावाहिकों में प्रस्तुत सास-बहू संबंध से सर्वथा भिन्न है।

‘उस धूप की छांह’ कहानी कैंसर पीड़ित नायिका के जीवन संघर्ष को व्यक्त करती है। ‘लय के विपरीत’ कहानी जीवन के असली अर्थों को बयान करती है। बेहद छोटे कथानक के माध्यम से लेखिका यह स्पष्ट करने में सफल रही है कि जीवन का असली आनंद उच्छृंखलता में नहीं अपितु सादगी में है। ‘प्रिया’ में पर्दा प्रथा के विरुद्ध एक नारी का संघर्ष तथा उसकी सफलता को दर्ज किया गया है।

‘जीने का अंदाज’ कहानी नारी जीवन की विड़म्बना पर प्रकाश डालती है। कहानी उस अवधारणा पर चोट करती है जिसके अंतर्गत नारी-सशक्तिकरण के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण हथियार बताया जाता है। लेखिका ऐसी अनेक महिलाओं का परिचय अपनी इस कहानी में देती हैं जो ऊंचे पदों पर काम करने के बावजूद भी अपने घरों में शोषण का शिकार हैं। वस्तुतः महिला-सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा हमारी पुरातनपंथी मानसिकता है।

एक तरफ नारी के लिए अनेक सीमाओं तथा मर्यादाओं की बात की जाती हैं, दूसरी ओर पुरुष के प्रति इस प्रकार का कोई नियम-कानून नहीं है। ‘दामिनी’ की दामिनी अपने पति के रुखे व्यवहार से पीड़ित है। एम.ए. पास तथा पीएच.डी. में रजिस्टर्ड दामिनी अपने पति की इग्नोरेंस तथा वाग्वानों की परवाह न करते हुए पूरी लगन से अपना काम करती है और विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद प्राप्त कर लेती है। परंतु पति का शुष्क व्यवहार उसे आज भी सालता है।

 
ल्ेखिका की संवेदनशीलता तथा कोमल-हृदयता को इन कहानियों में कई जगह अनुभव किया जा सकता है। वस्तुतः लेखिका अपने घर-परिवार, पास-पड़ोस तथा अपने परिवेश से गहराई से जुडी हैं। उनका अपने परिवार, अपनी सहेलियों तथा अपने पशु-पक्षियों से लगाव तथा जुड़ाव इन कहानियों की घटनाओं में अभिव्यक्त होता है। लेखिका अपने घर में निकले सांप को इसी शर्त पर पकड़ने देती हैं कि सपेरा उसे जंगल में छोड़ देगा। सड़क पर घायल अवस्था में मिले तोते की सेवा-सुश्रुषा करती हैं तो अपने घर की पालतू कुतिया ‘जूली’ के लिए वे एक पूरी कहानी लिख डालती हैं। 

डॉ. सुरेखा सिन्हा की कहानियां उनके भावुक हृदय की अभिव्यक्तियां हैं। शिल्पगत स्तर पर इन कहानियों में घटनाओं की वर्णनात्मकता कहानी के शिल्प को प्रभावित करते हुए संस्मरण तथा आत्मकथा विधा के ज्यादा निकट है। फिर भी इन कहानियों में जो आदर्श तथा मूल्य रेखांकित हुए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। 

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक का नाम- उस धूप की छांह
लेखिका- डॉ. सुरेखा सिन्हा
प्रकाशक- साहित्यागार
   धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर सं. 2011
मूल्य- 175 रुपये


No comments:

Post a Comment