Tuesday 16 August 2011

संबंधों की दरारों में झांकती कहानियां


डॉ. बानो सरताज के सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो अब मर जाएं’ में संकलित कहानियों में इस युग की धड़कनों को सुना जा सकता है। इन कहानियों में सदी की सबसे बड़ी विड़म्बना के रूप में टूटते संयुक्त परिवारों तथा एकल परिवारों में स्त्री-पुरुष संबंधों का यथार्थ प्रकट हुआ है। विशेषतः इन कहानियों में बुढ़ापे का दर्द, घर में उपेक्षित व्यवहार तथा दर-दर की ठोकरें खाते घर से बाहर निकाले गए वृद्धों के जीवन की व्यथा को लेखिका ने बड़ी बेबाकी से रखा है। इन कहानियों के वृद्ध पात्र जिस यथार्थ को जीते हैं वह जहर से भी अधिक कडवा है।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चलो अब मर जाएं’ के वृद्ध दंपत्ति अपने बेटे-बहू के व्यवहार से इतना आहत हैं कि वे जहर खाकर आत्महत्या कर लेते हैं। वृद्ध बलवंत अपनी पत्नी से कहता है- ‘जीने को किसका मन नहीं चाहता। मुझे अशोक के बेटे को गोद में खिलाने की बड़ी चाह है। निकिता बिटिया को बस्ता लटकाये स्कूल जाता देखने की तमन्ना है। पर निर्मला तू यह मत समझ कि मैं मात्र शारीरिक पीड़ा से तंग आकर मृत्यु की कामना करता रहता हूं....एक ही तो संतान है। वह घड़ी भर को मुस्कुराकर मेरी तबीयत पूछ ले तो मेरी पीड़ा कम हो जाए। मुझे बेटे की उपेक्षा अधिक दुख देती है निर्मला...।’

दूसरी तरफ ‘पागलखाना’ कहानी का सेवानिवृत्त वृद्ध पात्र अपने परिवार के उपेक्षित रवैये से तंग आकर पागल हो जाता है। पागलखाने में उसकी गतिविधियां, हरकतें और बड़बड़ाहट पूरी सभ्यता के पागलपन को उजागर करती हैं। उसका कहना कि ‘यह पागलखाना है? यह पागलखाना नहीं...पागलखाना तो वह दुनिया है जिसमें मैं अभी तक रह रहा था...पागल जो कुछ करते हैं उनकी अच्छाई-बुराई का उन्हें ज्ञान नहीं होता...भले-बुरे की पहचान से परे होते हैं वे...पर नर्स...उन्हें क्या कहोगी जो सब कुछ समझकर भी कुछ नहीं समझते...असली पागल यही होश वाले होते हैं...हां नर्स...मेरी पत्नी से कह दो कि मैं अब होश में आ गया हूं, मेरे बेटों को यहां आने से मना कर दो... मेरा दिल घबरा रहा है... मुझे यहीं सो जाने दो.... मुझे लौटकर उस पागलखाने में नहीं जाना...। नहीं जाना!’ सभ्यता की इससे बड़ी विसंगति क्या होगी जब एक पागलखाने को बेहतर बताया जा रहा हो। निःसंदेह विकास के पथ पर अग्रसर मानवीय सभ्यता की विड़म्बना है कि उसने भौतिक-वैज्ञानिक जगत में तो अपने पांव जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है परंतु इंसानियत का धरातल दल-दल में धंस चुका है।
 
इसी प्रकार ‘फेंकी हुई औरत’ कहानी वृद्धावस्था में बेटे-बहू के साथ रह रही वृद्धा के संताप की कहानी है। जिसकी कीमत पुराने रद्दी अखबारों से ज्यादा नहीं है। बेटे-बहू तथा बच्चों के छुट्टियों के टूर पर चले जाने के बाद उसके टाईमपास के सभी साधनों को ताला लगा दिया जाता है। ‘महरी की छुट्टी, फ्रिज बंद, अख़्बार बंद, टी.वी. बंद, पडोसियों से मेल-जोल पर पहरे के बाद यह रद्दी अख़्बार यहां कैसे रह गए?....क्या इसलिए कि रद्दी है?’ सोचते हुए वृद्धा अपनी नियति को रद्दी अख़्बारों से जोड़ते हुए कहती है-‘हमारा तुम्हारा भाग्य एक-सा है भइया! काम निकल गया, फेंक दिए गए। आओ, हम मिलकर एक-दूसरे का दुख बांटें।’ ‘वारिस’, ‘गलती’, ‘दर-ब-दर’ तथा ‘एकला चलो रे’ कहानियों में भी वृद्धावस्था की विभिन्न समस्याओं को उघाड़ा गया है।

संग्रह की कहानियों में दूसरी जो बात मुख्य रूप से उभरी, वह है स्त्री-चरित्र के विभिन्न पहलू। इन कहानियों में नारी-शोषण, नारी-सशक्तिकरण के साथ-साथ नारी के उच्छृंखल चरित्र को भी उद्घाटित किया गया है। ‘दो कौड़ी की औरत’ में नारी-शोषण, पितृसत्तात्मकता व पुरुष चरित्र के घिनौनेपन को चित्रित किया गया है। कहानी अपने छोटे-से कथानक में नारी के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक तथा यौन-शोषण को अभिव्यक्त करने में सफल रही है। ‘नंगी टांगों वाली औरत’ उत्तरआधुनिकता के स्याह पक्ष को प्रकाशित करती है। लेखिका के स्त्री संबंधी विचार किसी विमर्श की सीमा में कैद नहीं हैं।

इन कहानियों में पुरुष चरित्र के ओछेपन को नंगा किया गया है। ये कहानी स्त्री-स्वातंत्रय की वकालत तो करती हैं परंतु उसकी गरिमा, अस्तित्व तथा मर्यादा को बनाये रखते हुए। स्त्री-स्वातंत्रय का अर्थ स्त्री-उच्छृंखलता कदापि नहीं हो सकता। लेखिका के शब्दों में-‘नग्नता और अश्लीलता स्त्री-स्वतंत्रता का भाग नहीं है, नैतिक मूल्यों का रक्षण-संवर्धन कल भी नारी की जिम्मेदारी थी। आज भी उन्हीं का दायित्व है।’ डॉ. सरताज की कहानियां इस मायने में प्रशंसनीय हैं कि वे एक तरफ जहां पितृसत्तात्मकता और पुरुष-चरित्र के घिनौनेपन को उजागर करती हैं वहीं स्त्री-चरित्र के कमजोर पक्षों को भी रेखांकित करना नहीं भूलती। 

 
हिंदी साहित्य में पुरुष-शोषण को लेकर बहुत कम लिखा गया है। ऐसा नहीं है कि परिवारों में केवल स्त्री का ही शोषण होता है, पुरुष भी अनेक परेशानियों से जूझता है और कई बार स्त्री उसका जीना हराम कर देती है। इस विषय को लेकर अब तक जो बहुत कम मात्रा में कहानियां ध्यान में आई हैं, उनमें डॉ. बानो सरताज की ‘बिजूखा’ और ‘गलती’ शीर्षक कहानियों में स्त्री द्वारा पुरुष-शोषण का जो पक्ष उभरा है, वह उन्हें अन्य कहानियों से अलग करता है। ‘बिजूखा’ का बृजमोहन अपनी पत्नी नेहा के दुर्व्यवहार, बात-बात पर तलाक की धमकी तथा देर रात तक अपने पुरुष मित्रों के साथ क्लबों-पार्टियों में जाने की आदत से तंग आकर घर छोड़ने को विवश हो जाता है। वहीं ‘गलती’ का किशोर अपने मां-बाबा के प्रति पत्नी झरना के उपेक्षित व्यवहार से आहत है। झरना अपने कमरे में बंद होकर उपन्यास पढ़ती अथवा टी.वी. देखती और किशोर अपने वृद्ध बीमार बाबा के कपड़े धोता, फर्श की सफाई भी वही करता। उसकी अनुपस्थिति में जब कभी झरना को यह दायित्व निभाना पड़ता तो वह उठते-बैठते किशोर पर एहसान जताती। डॉ. बानो सरताज की ये कहानियां घर-परिवार के पारस्परिक संबंधों को बड़ी बारीकी से पकड़ने में सफल रही हैं।

भाषा-प्रयोग के मामले में डॉ. सरताज की कहानियों में उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों की बहुलता पात्र तथा परिवेश को जीवंत बनाती है। उनकी गद्य शैली सुगठित है जहां कथानक तथा संवादों का तारतम्य पाठक को ऊबने नहीं देता। गांधीवादी विचारों से प्रभावित डॉ. बानो सरताज का यह संग्र्रह पारिवारिक आदर्शों को बनाये रखने पर जोर देता है। सकारात्मक दृष्टिकोण से लिखी गई ये कहानियां पाठक को जीने का सलीका सिखाते हुए संबंधों के बीच की दरारों को भरने को प्रेरित करती हैं।

कृष्ण कुमार अग्रवाल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
मो. 09802525111

पुस्तक का नाम- चलो अब मर जायें
लेखिका- डॉ. बानो सरताज
प्रकाशक- विकास प्रकाशन
   311 सी, विश्व बैंक बर्रा, कानपुर-208027 प्रथम सं. 2010
मूल्य- 270 रुपये
  

No comments:

Post a Comment